भगवान से प्रेम करो और उन पर विश्वास करो तो उनकी कृपा आप पर हमेशा बनी रहेगी
एक गांव के बाहरी हिस्से में एक वृद्ध साधु बाबा छोटी सी कुटिया बनाकर रहते थे। वह ठाकुर जी के परम भक्त थे। स्वभाव बहुत ही शांत और सरल। दिन-रात बस एक ही कार्य था, ठाकुर जी के ध्यान-भजन में खोए रहना। ना खाने की चिंता ना पीने की, चिंता रहती थी तो बस एक कि ठाकुर जी की सेवा में कोई कमी ना रह जाए।
साधु बाबा भोर होने से पहले ही जाग जाते, स्नान और नित्य कर्म से निवृत्त होते ही ठाकुर जी की सेवा में लग जाते। उनको स्नान कराते, धुले वस्त्र पहनाते, चंदन से तिलक करते, पुष्पों की माला पहनाते फिर उनका पूजन भजन आदि करते। जंगल से लाए गए फलों से ठाकुर जी को भोग लगाते। बिल्कुल वैरागी थे, किसी से विशेष कुछ लेना देना नहीं था।
फक्कड़ थे किन्तु किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते थे। यदि कोई कुछ दे गया तो स्वीकार कर लिया नहीं तो राधे-राधे। फक्कड़ होने पर भी एक विशेष गुण उनमें समाहित था, उनके द्वार पर यदि कोई भूखा व्यक्ति आ जाए तो वह उसको बिना कुछ खिलाए नहीं जाने देते थे। कुछ नहीं होता था तो जंगल से फल लाकर ही दे देते थे, किन्तु कभी किसी को भूखा नहीं जाने दिया।
यही स्तिथि ठाकुर जी के प्रति भी थी। उनको इस बात की सदैव चिंता सताती रहती थी कि कहीं ठाकुर जी किसी दिन भूखे ना रह जाएं। उनके पास कुछ होता तो था नहीं कहीं कोई कुछ दे जाता था, तो भोजन बना लेते थे, अन्यथा वह अपने पास थोड़ा गुड़ अवश्य रखा करते थे।
भोजन बनाते थे तो पहले भोजन ठाकुर जी को अर्पित करते फिर स्वयं ग्रहण करते। कभी भोजन नहीं होता था तो गुड़ से ही काम चला लेते थे। थोड़ा गुड़ ठाकुर जी को अर्पित करते और फिर थोड़ा खुद खाकर पानी पी लेते थे।
एक बार वर्षा ऋतु में कई दिन तक लगातार वर्षा होती रही। जंगल में चारो ओर पानी ही पानी भर गया। जंगल से फल ला पाना संभव नहीं रहा। उनके पास रखा गुड़ भी समाप्त होने वाला था। अब बाबा को चिंता हुई, सोचने लगे यदि वर्षा इसी प्रकार होती रही तो मैं जंगल से फल कैसे ला पाउंगा। ठाकुर जी को भोग कैसे लगाऊंगा। गुड़ भी समाप्त होने वाला है, ठाकुर जी तो भूखे ही रह जाएंगे।
दूसरी चिंता यदि द्वार पर कोई भूखा व्यक्ति आ गया तो उसको क्या खिलाऊंगा। यह सोचकर वह गहरी चिंता में डूब गए। उन्होंने निश्चय किया कि अब से मैं कुछ नहीं खाऊंगा। जो भी मेरे पास है वह ठाकुर जी और आने वालों के लिए रख लेता हूं। ऐसा विचार करके उन्होंने कुछ भी खाना बंद कर दिया और मात्र जल पीकर ही गुजारा करने लगे। किन्तु ठाकुर जी को नियमित रूप से भोग देते रहे।
बाबा की भक्ति देखकर ठाकुर जी अत्यन्त प्रसन्न हुए, किन्तु उन्होंने उनकी परीक्षा लेने का विचार किया। दो दिन बाद ठाकुर जी ने एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किया और उनकी कुटिया में उस समय पहुंचे जब तेज वर्षा हो रही थी। वृद्ध ब्राह्मण को कुटिया पर आया देख साधु बाबा बहुत प्रसन्न हुए और उनको प्रेम पूर्वक कुटिया के अंदर ले गए। उनको प्रेम से बैठाया कुशल क्षेम पूंछी, तब वह ब्राह्मण बड़ी ही दीन वाणी में बोला कि तीन दिन से भूखा है, शरीर बहुत कमजोर हो गया है, यदि कुछ खाने का प्रबन्ध हो जाए तो बहुत कृपा होगी।
इस पर साधु बाबा ने ठाकुर जी को मन ही मन धन्यवाद दिया कि उनकी प्रेरणा से ही वह कुछ गुड़ बचा पाने में सफल हुए। वह स्वयं भी तीन दिन से भूखे थे, किन्तु उन्होंने यथा संभव गुड़ और जल उस ब्राह्मण को अर्पित करते हुए कहा इस समय तो हमारे पास यही साधन उपलब्ध है, कृपया इसको ग्रहण करें।
बाबा की निष्ठा देख ठाकुर जी अत्यन्त प्रसन्न थे, किन्तु उन्होंने अभी और परीक्षा लेने की ठानी। वे बोले इससे मेरी भूख भला कैसे मिटेगी। यदि कुछ फल आदि का प्रबंध हो तो ठीक रहेगा। अब बाबा जी बहुत चिंतित हुए, उनके द्वार से कोई भूखा लौटे यह उनको स्वीकार नहीं था। वह स्वयं वृद्ध थे, तीन दिन से भूखे थे, शरीर भूख से निढाल था, किन्तु सामने विकट समस्या थी। उन्होंने उन ब्राह्मण से कहा ठीक है, श्रीमान जी आप थोड़ा विश्राम कीजिये मैं फलों का प्रबन्ध करता हूं।
साधु बाबा ने ठाकुर जी को प्रणाम किया और चल पड़े भीषण वर्षा में जंगल की ओर फल लाने। जंगल में चारो ओर पानी भरा था, पानी में अनेको विषैले जीव इधर-उधर बहते जा रहे थे, किन्तु किसी भी बात की चिन्ता किये बिना साधु बाबा, कृष्णा-कृष्णा का जाप करते चलते रहे। उनको तो मात्र एक ही चिंता थी की द्वार पर आए ब्राह्मण देव भूखे ना लौट जाएं।
जंगल पहुंचकर उन्होंने फल एकत्र किये और वापस चल दिए। कुटिया पर पहुंचे तो देखा कि ब्राह्मण देव उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। बाबा जी ने वर्षा और भरे हुए पानी के कारण हुए विलम्ब के कारण उनसे क्षमा मांगी और फल उनको अर्पित किए। इस पर वह वृद्ध ब्राह्मण बोला- बाबा जी आप भी तो ग्रहण कीजिये। इस पर बाबा जी बोले- क्षमा करें श्रीमान जी, मैं अपने ठाकुर जी को अर्पित किए बिना कुछ भी ग्रहण नहीं करता। यह फल मैं आपके लिए लाया हूं, मैंने इनका भोग ठाकुर जी को नहीं लगाया है।
तब वह ब्राह्मण बोला ऐसा क्यों कह रहे हैं आप, ठाकुर जी को तो आपने अभी ही फल अर्पित किये हैं। बाबा बोले अरे ब्राह्मण देव क्यों परिहास कर रहे हैं, मैंने कब अर्पित किये ठाकुर जी को फल, तब ब्राह्मण देव बोले अरे यदि मुझ पर विश्वाश नहीं तो जाकर देख लो अपने ठाकुर जी को, वह तो तुम्हारे द्वारा दिए फलों को प्रेम पूर्वक खा रहे हैं।
ब्राह्मण देव की बात सुनकर बाबा जी ने जाकर देखा तो वह सभी फल ठाकुर जी के सम्मुख रखे थे, जो उन्होंने ब्राह्मण देव को अर्पित किये थे। वह तुरंत बाहर आए और आकर ब्राह्मण देव के पैरों में पड़ गए और बोले कृपया बताएं आप कौन हैं। यह सुनकर श्री हरी वहां प्रत्यक्ष प्रकट हो गए। ठाकुर जी को देख वह वृद्ध बाबा अपनी सुध-बुध खो बैठे बस ठाकुर जी के चरणों से ऐसे लिपटे मानों प्रेम का झरना बह निकला हो। आंखों से अश्रुओं की धारा ऐसे बहे जा रही थी, जैसे कुटिया में ही वर्षा होने लगी हो।
ठाकुर जी ने उनको प्रेम पूर्वक उठाया और बोले तुम मेरे सच्चे भक्त हो, मैं तुम्हारी भक्ति, तुम्हारी निष्ठा और प्रेम से अभिभूत हूं। मैं तुम्हारी प्रत्येक इच्छा पूर्ण करूंगा, कहो क्या चाहते हो। किन्तु साधु बाबा की तो मानो वाणी ही मारी गई हो, बस अश्रु ही बहे जा रहे थे, वाणी मौन थी, बहुत कठिनता से स्वयं को संयत करके बोले-हे नाथ जिसने आपको पा लिया हो उसको भला और क्या चाहिए। अब तो बस इन चरणों में आश्रय दे दीजिये, ऐसा कह कर वह पुन: ठाकुर जी के चरणों में गिर पड़े। तब ठाकुर जी बोले मेरा दर्शन व्यर्थ नहीं जाता, मांगो क्या चाहते हो, कहो तो तुमको मुक्ति प्रदान करता हूं।
यह सुनते ही बाबा विचलित हो उठे, तब बाबा बोले हे हरि, हे नाथ, मुझको यूं ना छलिये, मैं मुक्ति नहीं चाहता, यदि आप देना ही चाहते हैं, तो जन्मों-जन्मों तक इन चरणों का आश्रय दीजिए। हे नाथ बस यही वरदान दीजिए कि मैं बार-बार इस धरती पर जन्म लूं और हर जन्म में आपके श्री चरणों के ध्यान में लगा रहूं, हर जन्म में इसी प्रकार आपको प्राप्त करता रहूं। तब श्री हरि बोले तथास्तु, भगवान् के ऐसा कहते ही साधु बाबा के प्राण श्री हरी में विलीन हो गए।