अध्यात्म

मन की इच्छा का अंत नहीं, मन को काबू में रखना ही सबसे बड़ा तप

लेखक: विजय जोशी, पूर्व गु्रप महाप्रबंधक भेल

ईश्वर प्रदत्त बल, बुद्धि, विद्या, विवेक का दुरुपयोग करते हुए स्वार्थपूर्ण प्रगति की चाहत में वह उसी प्रकृति का सर्वनाश करने पर तुल गया, जो उसकी प्राणदायिनी है

भोपाल. आज की बात हम एक पूर्व परिचित कहानी से आरंभ करते हैं। एक साधु की कुटिया में उनके साथ एक चूहा भी रहा करता था, जिसे वे स्नेेह करते थे। एक दिन चूहे ने कहा कि उसे बिल्ली से बहुत डर लगा रहता है और उसका स्वरूप बिल्ली में परिवर्तित कर देने के लिए इच्छा जाहिर की। साधु ने कहा तथास्तु और वह तुरंत ही बिल्ली हो गया, लेकिन कुछ दिनों बाद उसने कुत्ते से आजिज आकर कुत्ता बनना चाहा तो साधु ने फिर उपकृत कर दिया। बढ़ते-बढ़ते बात शेर तक आ गई और स्नेह के वशीभूत साधु उसे यह वरदान भी दे दिया। और यहीं से कहानी बदल गई। खुद की शक्ति के अहंकार में अब शेर ने साधु को ही शिकार बनाने का जतन किया। साधु पूरी बात तुरंत समझ गए और कहा पुन: मूर्षको भव यानी फिर से चूहा बना दिया। कहानी यहां समाप्त हो जाती है। अब वर्तमान संदर्भ में साधु को समझिये परमात्मा या प्रकृति तथा चूहे को पुरुष। ईश्वर प्रदत्त बल, बुद्धि, विद्या, विवेक का दुरुपयोग करते हुए स्वार्थपूर्ण प्रगति की चाहत में वह उसी प्रकृति का सर्वनाश करने पर तुल गया, जो उसकी प्राणदायिनी है। आइए एक विहंगवालोकन
1. पर्यावरण: कितना अद्भुत सामंजस्य है पुरुष और पेड़ों के बीच, जो आदमी द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाय आक्साइड को सोखकर पुन: प्राण वायु आक्सीजन में परिवर्तित कर लौटा देते हैं, लेकिन आदमी के लोभ का तो निरंतर विस्तार हो रहा है और पेड़ सिमट रहे हैं। सो पर्यावरण की खुदा खैर करे।

2. प्राकृतिक आपदा: जैसा कि विज्ञान में वर्णित है कि हर निरंतर घूमने वाली वस्तु केंद्र की ओर उन्मुख संतुलन के साथ घूमती रहती है। इसे डायनेमिक बैलेंसिंग का सिद्धान्त कहा गया है। हम सब ने अपनी कार के पहियों की बैलेंसिंग के संदर्भ में यह शब्द सुना ही है। सो धरती भी इसी सिद्धान्त के अंतर्गत अपनी धुरी पर घूमती है। ईश्वर ने निर्माण के समय ही नदी, पर्वत, खाई आदि का सुंदर संतुलित समायोजन किया है, जिसके साथ हमने भयानक छेड़छाड़ की है। दोनों ध्रुव पर बर्फ निरंतर पिघल रही है। कुछ वर्षों में कई नगर डूबने की कगार पर होंगे। सुनामी जैसी प्रकृतिक आपदाएं बढऩे का एक कारण यह भी है।

3. जल: जल ही जीवन है। पुराने समय में लोग वर्षाकालीन जल को जन सहयोग से कुएं, बावडिय़ों, तालाब, जलाशयों आदि का निर्माण कर पूरे वर्ष के लिए न केवल संग्रहित कर लिया करते थे अपितु भू-जल स्तर को भी बनाए रखते थे। कालांतर में यही सरकारी व्यवस्था को समर्पित हो गई और परिणाम हमारे सामने है। जल के लिए संभावित आगामी विश्व युद्ध की नींव भी डाल दी है हमने। यही बात भूगर्भ में उपलब्ध खनिज पदार्थों में भी लागू होती है। मिशन सब कुछ खत्म कर दो अगली पीढ़ी के लिए कुछ मत छोड़ो।

4. प्रदूषण: सुविधावादी संस्कृति के तहत दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे वाहन वायु प्रदूषण के सबसे बड़े संवाहक हैं, जिसका सीधा प्रभाव पर्यावरण एवं फेफड़ों के संक्रमण का समानुपाती है।

5. व्यसन से विनाश: अब व्यक्तिगत व्यसनों पर गौर करें। शराब, सिगरेट, नशा इत्यादि के माध्यम से इंसान खुद को तो काल के समक्ष जल्दी प्रस्तुत होने का कारण बन ही रहा है, वहीं दूसरी ओर वातावरण को भी नष्ट कर रहा है। कभी नष्ट न होने वाले प्लास्टिक के आवरण से पूरी धरती तथा समुद्र को आप्लावित कर रहा है, जिसके कारण पशु, पक्षी दोनों को काल कवलित होना पड़ रहा है।

6. ग्लोबल वार्मिंग: इस शब्द से तो जन-जन परिचित है। हर वर्ष धरती का तापमान निरंतर बढ़ रहा है, जिसका उपाय ढूंढने के बजाय एयर कंडीशनर निर्भरता से उत्सर्जित गैस ओजोन परत में छेड़ का मुख्य कारण बताया गया है।

महात्मा गांधी कहा करते थे कि धरती पर मानव की आवश्यकताओं के अनुरूप भरपूर है, पर लालच के अंतर्गत बहुत कम। लालच की हवस के दास हम यह भूल ही गए कि प्रकृति वह विरासत है, जो अगली पीढ़ी की थाती है, जिसे विदाई पूर्व सहेज, संभाल एवं संवर्धन कर हमें अपनी संतानों को सौंपना है। और यह भी सत्य है कि प्रकृति को विज्ञान के मद में पछाडऩे के उपक्रम में हम यह भूल भी गए कि वह तो अपराजेय है और एक पल में एक छोटे से इशारे से हम कलयुगी धृतराष्ट्रों को औकात दिखा देती है। हमारी हवस हमें विनाश की ओर धकेल रही है। याद रखिए पुरुष प्रकृति से ऊपर नहीं हो सकता। अहंकारग्रस्त मानव को वह समय पर सचेत भी करती रही है, जो कोरोना जैसी त्रासदी भी हो सकती है, जिससे आज हमारा संग्राम रोग प्रतिरोधक शक्ति के अभाव में कितना कठिन हो गया है।

>

About the author

admin administrator

Leave a Comment