भोपाल. जीवन मे कार्य के दौरान अपनी महत्वाकांक्षा के परिप्रेक्ष्य में हर व्यक्ति पद की कामना करता है। यह सर्वथ उचित भी है, क्योंकि कैरियर के मार्ग पर यह ऊर्जा का काम करती है। पद प्राप्ति से अधिक सुविधा, अधिक अधिकार आपको और अधिक सेवा के लिए प्रेरित करते हैं। पर मात्र पद जीवन का अभिप्राय नहीं हो सकता, क्योंकि जब कर्म फल की तृष्णा में किया जाए तो वह कार्य कर्म की श्रेणी में नहीं रह जाता। इसीलिये निष्काम कर्म की कल्पना की गई है। फल के पीछे दौड़ते रहने से तो कर्म ही काल कवलित हो जाता है। वीर हनुमान ने कभी पद या फल की आकांक्षा नहीं की। शायद यही कारण है कि स्वयं राम ने कहा है कि-राम से बड़े राम के दासा।
एक दिन जब राम सीता सहित दरबार में बैठे तो अपने चरणों पर हनुमान को देखकर भाव विव्हल तथा द्रवित हो गए।
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं
देखेउं करि विचार मन माहीं
उनके मन में अपने इस निष्कामकर्मी सेवक के प्रति करुणा जाग उठी।
बार बार प्रभु चहइ उठावा
प्रेम मगन तेहि उठव न भावा
वे भर्राये कंठ से किसी तरह बोले-हनुमान मै तुम्हें कुछ न दे सका। किष्किंधा का राज्य सुग्रीव को दिया, लंका का राज्य विभीषण को प्राप्त हुआ और अयोध्या के राजपद पर मैं स्वयं बैठ गया। पर तुम्हें कोई पद नहीं दे सका। इतना कहते कहते राम के नेत्र आंसुओं से आप्लावित हो उठे।
कपि उठाइ प्रभु ह्रदय लगावा
कर गहि परम निकट बैठावा
भगवान ने कहा -हे हनुमान मैं तुम्हारा ऋणी हूं। तुम मेरे धन हो। तुम्हारे ऋण से मैं उऋण नहीं हो सकता। हनुमान राम के हदय की व्यथा तुरंत समझ गए। बात को हल्का करते हुए वे बोले-प्रभु बड़ी कृपा की आपने जो हमें कोई पद नहीं दिया, क्योंकि हर पद के आगे कालांतर में भूत शब्द लग जाता है। आदमी पद छोड़ता है तो भी यह पद आदमी को नहीं छोड़ता और तब वह भूतपूर्व हो जाता है। और फिर आगे अपना गंतव्य भी स्पष्ट किया-प्रभु आप सबसे अधिक लाभ में तो मैं ही हूं। महाराज सुग्रीव को किष्किंधा का राजपद, विभीषण को लंका का पद तथा आपको अयोध्या। इन सब में मजे की बात तो यह है कि सबको केवल एक-एक पद ही मिला है, लेकिन मुझे तो दो-दो पद यानी आपके दोनों चरण कमल प्राप्त हैं। यह कहते हुए उन्होनें भगवान के चरण पकड़ लिये।
बिनु रघुपति पद पदुम परागा
मोहि केउ सपनेहुं सुखद न लागा
हनुमान की बात यहीं नहीं रुकी। वे तो भाव विव्हल थे सो आगे बोल उठे
मोरे तुम प्रभु गुर पितु माता
जाऊं कहां तजि पद जल जाता
और फिर आगे बोले-भगवन आप सबको एक पद मुझे तो दो पद यानी आपके दोनों चरण प्राप्त हुए हैं और वह भी स्थायी आजीवन। इन्हें मुझसे कोई नहीं छीन सकता और जिसे दो दो पद मिले हों वह एक के चक्कर में क्यों पड़ेगा।
मित्रों यही होनी चाहिये हम सबकी मानसिकता। सच कहें तो सच्ची बात यह है कि पद की आकांक्षा वे करते हैं जिनके कर्म की प्रतिष्ठा न हो। यदि व्यक्तित्व में दम हो तो इंसान से पद की प्रतिष्ठा बढ़ती है। ऐसे व्यक्ति कि लिए पद साधन है, साधना या साध्य नहीं। यही सोच व मानसिकता आदमी को अंदर बाहर दोनों ओर से स्वस्थ, सुंदर और प्रसन्न रखती है।
सभी चार दिन की है चांदनी, ये रियासतें, ये वजारतें
मुझे उस फकीर की शान दे कि जमाना उसकी मिसाल दे
महावीर के मंत्र
1. लक्ष्य के प्रति समर्पण : पथ से कभी भटके नहीं
2. सकारात्मक एवं सक्रिय : बिना विलंब कार्य संपादन
3. मित्र दुख हरण : सुग्रीव राम मित्रता
4. जोश रखा पर होश न खोया : जामवंत संवाद
5. विनम्रता से विजय : सुरसा प्रसंग
6. बाधाओं का पूर्वानुमान : लंका प्रवास
7. सज्जन की खोज : विभीषण से मित्रता
8. संवाद की सफलता : रावण दरबार
9. पद को रखा पैर तले : लोभरहित
10. प्रतिबद्धता : निर्विवाद एवं अविवादित (676)
कवन सो काम कठिन जग माहीं,
जो नहिं होई तात तुम्ह पाहीं।