लखनऊ
भारतीय नियंत्रक और लेखापरीक्षक की मानें तो प्रदेश सरकार का चिकित्सा व स्वास्थ्य विभाग हर मोर्चे पर फेल साबित हुआ है। लेखा परीक्षक ने अपनी रिपोर्ट में जिला अस्पतालों और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में वाह्य रोगी-अंत: रोगी, मातृत्व आकस्मिक, डायग्नोस्टिक सेवाएं, चिकित्सीय उपकरण, मानव संसाधन, संक्रमण नियंत्रण व औषधि प्रबंधन को लेकर गंभीर टिप्पणी की है।
जिला अस्पताल, महिला अस्पताल और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में मरीजों की तादाद एक तिहाई बढ़ गई, लेकिन चिकित्सकों की उपलब्ध नगण्य रही। नतीजतन 50 से लेकर 86 फीसदी मरीजों को पांच मिनट से भी कम समय में डॉक्टर देख रहे थे, जो आउटडोर में मर्ज खत्म करने, उसकी जांच और इलाज के लिए मानक के अनुसार बहुत ही कम है।
सीएचसी सांप काटने का केंद्र
मरीजों की भर्ती के मामले में आधे से ज्यादा अस्पतालों में बर्न वार्ड, ट्रामा वार्ड के साथ ही डायलिसिस, फिजियोथैरेपी, मनाचिकित्सा के लिए भर्ती की व्यवस्था ही नहीं थी। कुछ ही सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों बच्चों को भर्ती करने का इंतजाम था। सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र (सीएचसी) केवल सांप काटे का इलाज के केन्द्र बन कर रह गए। हृदयघात और निमोनिया के इलाज के मामले में सीएचसी के पास उपचार ही नहीं है। ऐसे मरीज जिला अस्पताल दौड़ते हैं। सीएचसी तो केवल रेफरल सेंटर बन कर रह गए।
आधे जिला अस्पतालों में एक्सरे मशीनों की कमी
डायग्नोस्टिक सेवाओं को लेकर रिपोर्ट में है कि उपचार में डायग्नोस्टिक सेवाओं की अति महत्वपूर्ण भूमिका है। इसके बावजूद आधे से ज्यादा जिला अस्पतालों में एक्सरे मशीनों की कमी पाई गई। ज्यादातर सीएचसी पर अल्ट्रासोनोग्राफी सुविधा नहीं थी तो सीटी स्कैन की भी एक तिहाई अस्पतालों में सुविधा पाई गई। पैथोलॉजी जांच की सुविधा में कमी थी तो जांच करने वाले लैब टेक्नीशियन भी काफी नहीं थे। यहां तक कि इस क्षेत्र में निजी एजेंसियों को लगाए जाने के बावजूद कोई सुधार नहीं आया। 22 सीएचसी में से छह में ही पैथोलॉजिकल सेवाएं मिलीं।
चिकित्सीय स्टाफ की कमी
चिकित्सीय स्टाफ तैनात करने में विषमता पाई गई। राजधानी लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल में 74 फीसदी डाक्टरों की कमी तो 210 फीसदी नर्सों की अधिकता पाई गई। यहां पैरामेडिकल स्टाफ 67 फीसदी कम था। शल्य चिकित्सकों की कमी के कारण लखनऊ के चिकित्सालयों में ऑपरेशन लक्ष्य के विपरीत केवल 50 फीसदी तक हो पाए। मातृत्व सेवाओं में प्रथम संदर्भित इकाई के रूप में उच्चीकृत किए गए 10 सीएचसी में से नौ में स्त्री रोग विशेषज्ञ ही नहीं थीं। 14 प्रकार की आवश्यक औषधियो की कमी के कारण सूजन कम करने वाली दवाई और दमा के इलाज वाली दवाईयां रोगियों को बाहर खरीदना पड़ रही थीं। प्रसव काल की सेवाओं में 10 में से आठ चिकित्सालयों में आवश्यक औषधियों की कमी थी।
जिला अस्पतालों में आईसीयू नहीं
लेखा परीक्षक ने आईसीयू के मामले में नमूने के तौर पर 11 चिकित्सालयों की जांच की तो पाया कि लखनऊ और गोरखपुर को छोड़कर कहीं भी आईसीयू की सुविधा नहीं थी। ट्रामा सेवाएं भी केवल बांदा और सहारनपुर में मिलीं। जिला महिला अस्पताल संसाधनों की कमी से जूझते नज़र आए। जिला चिकित्सालयों और सीएचसी पर चिकित्सा औजारों को विसंक्रमित की करने की सुविधा ही नहीं थी। अस्पतालों के भवन निर्माण की हालत यह है कि 32 महीने बीत चुके जांचे गए 12 अस्पतालों और सीएचसी में में आठ स्टाफ और उपकरणों की कमी के चलते क्रियाशील नहीं हो पाए।