संसार में अवांछनीयता कम और उत्कृष्टता अधिक है, तभी तो यह संसार अब तक जीवित है। यदि पाप अधिक और पुण्य स्वल्प रहा होता, तो अब तक यह दुनिया श्मशान बन गई होती। यहां सत्य, शिव और सुन्दर इन तीनों में से एक का भी अस्तित्व जीवित न रहा होता। आग दुनिया में बहुत है, पर पानी से अधिक नहीं। इतने पर भी हम देखते हैं कि अनाचार घटता नहीं, बढ़ता ही जाता है।
सरकारी पकड़ में दुष्टता की पूछ मात्र आती है
सरकारी प्रयाश रोकथाम के लिए काफी बढ़ाए गए हैं, पर उनकी पकड़ में दुष्टता की पूंछ भर आती है। सारा कलेवर जो जहां का तहां जमा बैठा रहता और अपना विस्तार करने में संलग्न रहता है। आश्चर्य इस बात का है कि सज्जनता का स्पष्ट बहुमत होते हुए भी दुष्टता क्यों पनपती और फलती-फूलती चली जाती है। रोकथाम की सार्वजनिन आकांक्षा क्यों फलवती नहीं होती, असुरता की शक्ति क्यों अजेय बनती जा रही है। देवत्व उसके आगे पराजित होता और हारता, झक मारता क्यों दिखाई देता है।
सत्य में हजार हाथी के बराबर बल होता है
विचार करने पर स्पष्ट होता है कि पाप-शक्ति स्वल्प है। बलवान चोर घर में घुसे और घर मालिकों में से कुछ स्त्री, बच्चे जग पड़ें-कुत्ते भौंकने लगें तो उन्हें तत्काल उल्टे पैरों भागना पड़ता है। स्पष्ट है पाप अत्यंत दुर्बल होता है, प्रकारांतर से दुर्बलता ही निकृष्टता के रूप में परिणत होती है। सत्य में हजार हाथी के बराबर बल बताया गया हैं। परन्तु उसके हारने और असत्य के मजबूती से पैर जमाये रहने का कुछ तो कारण होना ही चाहिए। वह यह है कि जन-मानस में से उस रोष-आक्रोश का-शौर्य-साहस का अस्तित्व मिटा नहीं तो घट अवश्य गया है, जिसमें अनीति की चुनौती स्वीकार करने की तेजस्विता विद्यमान रहती है।
इस कसौटी पर औसत आदमी बड़ा डरपोक, कायर, दब्बू, संकोची, पलायनवादी और कुछ-कुछ वैसा ही बन जाता है, जैसा कि गीता का विवादग्रस्त अर्जुन था। उसमें रोष-आक्रोश उत्पन्न करने के लिए ही भगवान को गीता सुनानी पड़ी और अपने प्राण प्रिय मित्र को क्लीव, क्षुद्र, दुर्बल, अनार्य आदि एक से एक कड़वी गालियों की झड़ी लगाने की आवश्यकता अनुभव हुई।
हम सब की मन:स्थिति अर्जुन जैसी हो चुकी है
अर्जुन समझौतावादी, संतोषी प्रकृति का और सज्जन दीखता है। वह क्षमा करने, सन्तोष रखने की नीति अपनाना चाहता है और भीख आदि के सहारे संतुष्ट रहना चाहता है। युद्ध का कटु प्रसंग उसे अच्छा नहीं लगा। आज हम सब की मन:स्थिति ऐसी ही हो गई है कि झगड़े में न पडऩे, किसी तरह झंझट काट लेने, अनाचार से निगाह चुरा लेने की बात में ही भलाई देखते हैं।
यह भलाई दिखाने वाली सज्जनता का आवरण ओढ़े हुए क्षमाशीलता वस्तुत: परले सिरे की कायरता होती है। इससे अपने को झंझट में न पडऩे से बचाने के अतिरिक्त किसी से दुश्मनी मोल न लेने और बदनामी से बचने जैसे ऐसे तत्व भी मिले रहते हैं, जिन्हें प्रकारान्तर से अनीति समर्थक और परिपोषक ही कहा जा सकता है।
भले लोगों के चुप रहने से गुंडों की हिम्मत बढ़ती है
दिन-दहाड़े सरे-बाजार गुंडागर्दी होती रहती है और यह भले बनने वाले लोग चुपचाप उस तमाशे को देखते रहते हैं। गुण्डों की हिम्मत बढ़ती है और वे आये दिन दूने उत्साह से वैसी ही हरकतें करते हैं। यदि देखने वाली भीड़ ने जोर से एक साथ शोर ही मचा दिया होता, तो सरे आम गुंडागर्दी करने वालों के पैर उखड़ सकते थे और दुर्घटना बच सकती थी।
भीरू हो चुका है समाज
अनाचार की घटनाएं घटती हैं, पुलिस छानबीन करती है, पर प्रत्यक्षदर्शी भले मानुसों में से गवाही देने एक भी नहीं जाता। झंझट से बचने में ही जिन्हें खैर दिखती है वे अनाचार का सामना करने में जो थोड़ी बहुत कठिनाई उठानी पड़ती है, उसका झंझट क्यों मोल लें। इस भीरुता पर प्रत्यक्ष रूप से गुंडागर्दी का लांछन तो नहीं लगाया जा सकता, पर प्रत्यक्ष रूप से अनीति को खाद-पानी देने की जिम्मेदारी उसी की है।
बदनामी के डर से नहीं करते विरोध
अपनी लड़की से कोई गुंडा छेडख़ानी करे तो लोग बदनामी के डर से उसे छिपाने की कोशिश करते हैं, इससे दोहरी हानि होती है। अगले दिनों लड़की को फिर कोई छेड़े तो वह बेचारी चुपचाप उसे सहन करती रहती है। जानती है कि अभिभावकों में सामना करने की हिम्मत तो है नहीं। छिपाने का ही उपदेश देंगे ऐसी दशा में उसे छिपाने की बात स्वयं ही करती रहे, तो क्या हर्ज है। दूसरी ओर छेडऩे वालों का साहस सौ गुना हो जाता है। वे चक्रवर्ती शासक की तरह मूंछें ऐंठते और ताल ठोकते फिरते हैं। मानो इन सज्जन कहलाने वाले कायरों को उन्होंने मक्खी-मच्छर की तरह अपना वशवर्ती बना लिया हो।
साहस दिखा सकने वाले ढूंढ़े नहीं मिलते
छोटे-बड़े प्रत्येक अनाचार के अवसर पर यही दृश्य देखने को मिलता है। विरोध, प्रतिरोध, असहयोग करने के लिए साहस दिखा सकने वाले ढूंढ़े नहीं मिलते, वरन् क्षमा का उपदेश देने, गंदगी पर मिट्टी डालने की बात कहने वाले लोगों की भीड़ सामने आ खड़ी होती है और रोकथाम के लिए जो कुछ किया जा सकता था, वह सम्भव ही नहीं हो पाता। स्थिति कितनी दयनीय और कितनी विषम है। लगता है लोगों ने पाप को सुरक्षित रखने और उसे फलने-फूलने देने की ऐसी नीति अपना ली है, जो बाहर से निर्दोष लगती है, किन्तु वस्तुत: वही अनाचार को बढ़ावा देने में खाद-पानी का काम करती है।
विश्वामित्र का जीवन संघर्सों से भरा पड़ा है
भगवान की अवतार प्रतिज्ञा में धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश का उभय-पक्षीय आश्वासन है। प्रत्येक अवतार के चरित्र में इन दोनों ही तत्वों का समावेश है। अधिक बारीकी से देखने पर प्रतीत होगा कि अवतारों ने धर्मोपदेश तो कम दिए हैं, वरना पाप से जूझने और उसे निरस्त करके छोडऩे की आक्रोश प्रक्रिया में ही अपना अधिक समय लगाया है। रामचरित्र में विश्वामित्र यज्ञ रक्षा से लेकर पंचवटी, दंड कारण्य आदि में जूझते हुए अंतत: लंका युद्ध में जा डटने के ही प्रसंग भरे पड़े हैं।
कृष्ण ने दिए हैं मनुष्य के लिए कई संदेश
कृष्ण चरित्र में भी उनके जन्मकाल से ही असुरों से जूझने की महाभारत रचाने की और अंतत: अपने ही वंश वालों को नष्ट होने देने की संरचना में समय बीता। भगवान परशुराम, भगवान नृसिंह, वाराह, भगवती दुर्गा आदि के अवतार चरित्रों में अनीति से संघर्ष का ही प्रसंग बढ़ा-चढ़ा है। उनके साथी समर्थकों की सेना को धर्म स्थापना का-जप हवन का कितना समय मिला, कह नहीं सकते पर स्पष्ट है कि भगवत् भक्तों ने ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए अपनी सामथ्र्य झोंक देने का आदर्श उपस्थित किया। रीछ-वानरों ने, ग्वाल-बालों ने पाण्डवों ने, प्रधानतया अनीति विरोधी तप साधना में ही अपना जीवन घुलाया था।