लेखक: विजय जोशी, पूर्व महाप्रबंधक, भेल
आदमी जीने के लिए आक्सीजन ग्रहण कर बदले में नाइट्रोजन छोड़ता है। पेड़ रात में उसी नाइट्रोजन को फिर आक्सीजन में परिवर्तित करके आदमी को लौटा देते हैं, ताकि वह जी सके।
भोपाल. बचपन में सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित एक कविता धरती कितना देती है, आज फिर एक बार मानस पटल पर उभर आई। मैंने बचपन में छुपकर पैसे बोये थे। सोचा था पैसों के पेड़ उगेंगे। और मैं फूल-फूल कर मोटा सेठ बनूंगा। कविता इसी तर्ज पर आगे बढ़ती जाती है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। समापन तक यह बात सिद्ध हो जाती है कि पैसे की सोच तो बहुत छोटी थी। धरती तो उससे कई गुना आगे जाकर कितना अधिक देती है इंसान को।
प्रकृति का हमेशा ऋणि है मानव
बात का संदर्भ यह है प्रकृति ने पुरुष और पर्यावरण का इतना सुंदर संतुलन बना रखा है कि मानवता निर्बाध रूप से सतत आगे बढ़ सके। आदमी जीने के लिए आक्सीजन ग्रहण कर बदले में नाइट्रोजन छोड़ता है। पेड़ रात में उसी नाइट्रोजन को फिर आक्सीजन में परिवर्तित करके आदमी को लौटा देते हैं, ताकि वह जी सके।
पर लोभ, लालच से ग्रस्त इंसान को इतनी छोटी सी बात भी समझ में नहीं आई कि पेड़ काटेंगे तो वह कैसे जी पाएगा। प्रदूषित वातावरण में और तब आता है, वह पल जब प्रकृति उसे सबक सिखाती है। संभावतया कोरोना जैसी किसी त्रासदी का आकार ले।
नहीं चेते तो वेंटिलेटर पर ऑक्सीजन लेना पड़ेगा
खैर यहां प्रसंग की सामयिकता उभरी है एक छोटे से उदाहरण के माध्यम से। एक बुजुर्ग को हाल ही में अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। उसे वेंटिलेटर पर रखते हुए आक्सीजन की सहायता से स्वस्थ किया गया और जब स्वस्थ हुआ तो डॉक्टर ने उसे क्रंदन न करने की सांत्वना देते हुए वेंटिलेटर उपयोग का भारी भरकम बिल थमा दिया।
प्रकृति से हमेशा लिया, कुछ दिया नहीं
बिल सचमुच बहुत अधिक था, जो उसने चुका तो दिया, किन्तु उसी पल उसे एहसास हुआ कुदरत के करिश्मे का। उसने कहा मैंने अपने जीवन के अस्सी वसंत देख लिए। लेकिन इस बात को कभी अनुभव नहीं किया कि प्रकृति ने इतने वर्ष कुछ भी लिए बगैर नि:शुल्क आक्सीजन प्रदान कर मुझे जीवित रखा। मुझे एक भी पैसा नहीं चुकाना पड़ा।
लेकिन केवल एक दिन अस्पताल में रहने के लिए उसी आक्सीजन के लिए कितनी अधिक राशि चुकानी पड़ी, जो एक आदमी के लिए संभव ही नहीं। अब मुझे समझ में आया कि मैं ईश्वर और प्रकृति का कितना ऋणी हूं। इसके साथ ही इस अवदान के लिए मैंने एक बार भी धन्यवाद तक नहीं कहा।
अब भी नहीं चेते तो इतिहास बन जाएंगे
उपरोक्त संस्मरण भले ही पूरी तरह प्रामाणिक न हो पर इसकी सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। ऐसे तथ्य हमें तब ही समझ में आते हैं, जब हम अस्पतालों में भर्ती होते हैं। मंतव्य स्पष्ट है कि यदि अब भी न चेते तो किस दिन काल कवलित होकर इतिहास बन जाएंगे हमें खुद ज्ञात नहीं। सो जब जागे तभी सवेरा। उत्तिष्ठ भारत। बकलम इकबाल वतन की फिक्रकर नादां मुसीबत आने वाली है।