नई दिल्ली
भारत ने रूस के संसाधन संपन्न सुदूरी पूर्वी क्षेत्र (फार ईस्ट रीजन) के विकास के लिए 1 अरब डॉलर का कर्ज देने का ऐलान किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 20वें भारत-रूस वार्षिक सम्मेलन में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ बातचीत के लिए रूस गए थे। उन्होंने वहां ईस्टर्न इकनॉमिक फोरम में भी हिस्सा लिया।
इसमें आश्चर्य की बात क्या है?
विकास के लिए मदद का हाथ बढ़ाना भारत के लिए कोई नई बात नहीं है। विदेशी सरकारों और खासकर भारत के पड़ोसियों के विदेश मंत्रालयों के बजट दूसरे देशों से मिलने वाली सहायता राशि पर ही निर्भर करते हैं। हकीकत में भारत द्वारा विदेशों को दिया जाने वाला कर्ज पिछले वर्षों में ढाई गुना से भी ज्यादा हो गया। भारत ने 2013-14 में विदेशों को 11 अरब डॉलर कर्ज दिए थो जो पिछले वित्त वर्ष 2018-19 में बढ़कर 28 अरब डॉलर हो गए। हालांकि, भारत ज्यादातर कर्ज एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों को देता है जो आर्थिक रूप से रूस के मुकाबले कमजोर हैं।
भारत भी कभी अंतरराष्ट्रीय मदद लेता था
भारत अपने उद्योग और कृषि जगत के विकास के लिए लंबे समय तक अंतरराष्ट्रीय मदद पर निर्भर रहा था। 1956 में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार बहुत कम हो गया था, तब अपनी दूसरी पंचवर्षीय योजना की फंडिंग के लिए विदेशों का मुंह देखना पड़ा था। 1990 के दशक में उदारवादी बाजार व्यवस्था अपनाने के बाद भारत में विदेशी निवेश आने लगा तो विदेशों से सहायता लेने का सिलिसला टूटा। वह दौर सोवियत संघ के टूटने का था। रूस की ओर से विदेशों को दिए जाने वाले कर्ज का बड़ा हिस्सेदार भारत के हिस्से आता रहा। तब सोवियंत संघ ने विदेशी मदद को समर्पित रकम का एक चौथाई हिस्सा सिर्फ विकासशील देशों को देता था।
बदले हालात
रूस की अर्थव्यवस्था 2014 से ही मुश्किलों का सामना कर रही है। क्रीमिया पर रूस के कब्जे के कारण लगी अंतरराष्ट्रीय पाबंदियों और पांच वर्ष पहले कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट ने उसकी रीढ़ तोड़ दी। इन पांच वर्षों में रूस की इकॉनमी महज 2% की दर से बढ़ी। इस कारण रूसी वर्करों की आमदनी घटी और टैक्स बढ़ा। इस वर्ष मॉस्को में हुए विरोध प्रदर्शन का एक कारण यह भी था।