भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को राधा अष्टमी यानी राधा रानी के प्राकट्य दिवस के रूप में मनाया जाता है। द्वापर युग में इस पावन तिथि पर देवी राधा का जन्म हुआ था। यह तिथि 6 सितंबर यानी आज है। पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि राधाजी का जन्म माता के गर्भ से नहीं बल्कि वृषभानु जी की तपोभूमि से प्रकट हुई थीं। ब्रह्मवैवर्त पुराण में राधाजी के जन्म की जो कथा बताई गई है वह इस प्रकार है…
राधाजी के जन्म की कथा
राधा श्रीकृष्ण के साथ गोलोक में निवास करती थीं। एक बार देवी राधा गोलोक में नहीं थीं, उस समय श्रीकृष्ण अपनी एक सखी विराजा के साथ गोलोक में विहार कर रहे थे। राधाजी यह सुनकर क्रोधित हो गईं और तुरंत श्रीकृष्ण के पास जा पहुंची और उन्हें भला-बुरा कहने लगीं। यह देखकर कान्हा के मित्र श्रीदामा को बुरा लगा और उन्होंने राधा को पृथ्वी पर जन्म लेने का शाप दे दिया। राधा को इस तरह क्रोधित देखकर विराजा वहां से नदी रूप में चली गईं।
इस शाप के बाद राधा ने श्रीदामा को राक्षस कुल में जन्म लेने का शाप दे दिया। देवी राधा के शाप के कारण ही श्रीदामा ने शंखचूड़ राक्षस के रूप में जन्म लिया। वही राक्षस, जो भगवान विष्णु का अनन्य भक्त बना और देवी राधा ने वृषभानुजी की पुत्री के रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया। लेकिन राधा वृषभानु जी की पत्नी देवी कीर्ति के गर्भ से नहीं जन्मीं।
जब श्रीदामा और राधा ने एक-दूसरे को शाप दिया तब श्रीकृष्ण ने राधा से कहा कि आपको पृथ्वी पर देवी कीर्ति और वृषभानु जी की पुत्री के रूप में रहना है। वहां आपका विवाह रायाण नामक एक वैश्य से होगा। रायाण मेरा ही अंशावतार होगा और पृथ्वी पर भी आप मेरी प्रिया बनकर रहेंगी। उस रूप में हमें विछोह का दर्द सहना होगा। अब आप पृथ्वी पर जन्म लेने की तैयारी करें। सांसारिक दृष्टि में देवी कीर्ति गर्भवती हुईं और उन्हें प्रसव भी हुआ। लेकिन देवी कीर्ति के गर्भ में योगमाया की प्रेरणा से वायु का प्रवेश हुआ और उन्होंने वायु को ही जन्मदिया, जब वह प्रसव पीड़ा से गुजर रहीं थी, उसी समय वहां देवी राधा कन्या के रूप में प्रकट हो गईं।
राधा अष्टमी व्रत का महत्व
कृष्ण प्रिया राधा रानी के प्राकट्य दिवस पर व्रत रखने से भगवान कृष्ण भी प्रसन्न होते हैं और मनोवांछित फल प्रदान करते हैं। राधा नाम संसार के सभी दुखों को हरने वाला है। मान्यता के अनुसार इस व्रत को करने से धन की कमी नहीं होती और घर में बरकत बनी रहती है।
ऐसे रखें व्रत और पूजाविधि
सुबह-सुबह स्नान आदि से निवृत्त होकर सूर्यदेवता को जल अर्पित करें। इसके बाद मंडप के नीचे मंडल बनाकर उसके मध्यभाग में मिट्टी या तांबे का कलश स्थापित करें। अब इस पात्र पर वस्त्रों से सुसज्जित राधाजी की मूर्ति स्थापित करें। इसके बाद राधाजी की 16 उपचार से पूजा करें। राधाजी की पूजा मध्याह्न के वक्त की जाती है। पूजन के बाद उपवास करें और एक समय भोजन करें। अगले दिन श्रृद्धानुसार सुहागिन स्त्रियों और ब्राह्मणों को भोजन कराएं और दक्षिणा दें। उसके बाद स्वयं भी प्रसाद के रूप में भोजन करें।