नई दिल्ली
महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनाव नतीजे आ चुके हैं. दोनों ही सूबों में फिर से बीजेपी सरकार की वापसी हो रही है. महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला है तो हरियाणा में बीजेपी निर्दलीयों के समर्थन से सरकार बनाने में जुटी है.
ये चुनाव कांग्रेस के लिए एक ऐसा मौका साबित हुए हैं जिसे वह गंवा चुकी है. महाराष्ट्र में पार्टी चौथे नंबर पर खिसक गई है और सहयोगी एनसीपी ने उससे बेहतर प्रदर्शन किया है. हरियाणा में कांग्रेस बहुमत से काफी दूर है, लेकिन भूपेंद्र हुड्डा के नेतृत्व में पार्टी के इस प्रदर्शन को भी सराहा जा रहा है.
कांग्रेस अनिश्चितता और फैसले लेने में देरी का शिकार हुई. दिल्ली से मुंबई और चंडीगढ़ तक फरमान भेजने में सुस्ती दिखाई गई जिसका नतीजा हुआ कि बीच चुनाव तक न पार्टी की नीति तय हो पाई और न नेतृत्व.
महाराष्ट्र में तय नहीं कर पाई नीति और नेता
महाराष्ट्र में कांग्रेस प्रचार में पस्त रही और बगैर चेहरे के चुनाव में उतरी थी. वोटिंग से कुछ दिन पहले तक पार्टी अपना मुंबई अध्यक्ष खोजती रही, संजय निरूपम के बाद मिलिंद देवड़ा और फिर एकनाथ गायकवाड़ को ऐन वक्त में यह जिम्मेदारी दे गई फिर भी पार्टी में एकजुटता नहीं बन पाई.
कांग्रेस चुनाव के दौरान इस कदर सोई हुई थी कि पार्टी अध्यक्ष समेत तमाम आला नेताओं ने जनता के बीच जाकर वोट तक नहीं मांगे. राहुल गांधी के अलावा किसी भी बड़े नेता ने चुनावी सभाओं में हिस्सा नहीं लिया. राहुल गांधी की रैली में महाराष्ट्र का कोई बड़ा नेता उनके साथ तक नहीं दिखा. मुंबई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष देवड़ा ने खुद को चुनावी सभाओं से दूर रखा और आखिरी वक्त में ट्वीट कर वोट मांगते दिखे. ऐसे में पार्टी पहली ही हारी बाजी चल रही थी.
कांग्रेस की स्टार प्रचारक कही जा रहीं पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी ने किसी भी राज्य में प्रचार नहीं किया. वह खुद को यूपी की राजनीति तक सीमित रखे रहीं. मोदी सरकार की नीतियों पर वह सिर्फ ट्विटर के जरिए निशाना साधती हैं. पार्टी ने प्रचार के आखिरी वक्त में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से प्रेसवार्ता जरूर कराई लेकिन मोदी सरकार को घेरने के चक्कर में यह दांव भी उल्टा पड़ गया. सिंह के 370, सावरकर, एनआरसी और बैंकों की खराब स्थिति पर बयान पार्टी के आधिकारिक रुख से अलग दिखे.
महाराष्ट्र में कांग्रेस की सबसे बड़ी खामी उसका नेता प्रोजेक्ट करना न रहा. इस समय जब देशभर में चुनाव चेहरे और छवि पर लड़े जा रहे हैं तब कांग्रेस के पास महाराष्ट्र में कोई चेहरा नहीं था. पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण हों या उनसे पहले मुख्यमंत्री रहे अशोक चव्हाण, कांग्रेस किसी का नाम आगे करने की हिम्मत नहीं जुटा सकी. बीजेपी के पास देवेंद्र फड़णवीस थे तो शिवसेना के पास उद्धव और आदित्य ठाकरे की पिता-पुत्र की जोड़ी. एनसीपी मराठा क्षत्रप शरद पवार के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही थी तो कांग्रेस के पास नीति के साथ-साथ नेता भी नहीं दिखे.
हरियाणा में दुरुस्त आए मगर देर से आए
हरियाणा की बात की जाए तो यहां भी स्थिति ज्यादा अलग नहीं थी. अशोक तंवर और भूपेंद्र हुड्डा की आपसी लड़ाई के चलते पार्टी दो धड़ों में बंटी हुई थी. आलाकमान इस घमासान से आंख मूंदे रहा. नौबत यहां तक आ गई कि भूपेंद्र हुड्डा ने पार्टी छोड़ने की धमकी दे दी. तक जाकर कांग्रेस नेतृत्व ने हुड्डा को फ्री हैंड दिया और आखिरी वक्त में कुमारी शैलजा को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर मैदान में उतारा गया. तंवर इस बदलाव को बर्दाश्त नहीं कर सके और पार्टी से किनारा कर बैठे.
हरियाणा के नतीजे बताते हैं कि हुड्डा पर पार्टी आलाकमान का दांव दुरुस्त था. हुड्डा ने उम्मीद खो चुकी कांग्रेस को 31 सीटें जिताकर सियासी पंडितों को हैरान कर दिया. यानी आलाकमान ने अगर हरियाणा पर अपना फैसला लटकाए न रखा होता और पहले से ही हुड्डा को चुनाव की कमान सौंप दी होती तो नतीजे बेहतर हो सकते थे.
हुड्डा ने नरेंद्र मोदी, अमित शाह और मनोहर खट्टर की अगुवाई वाली बीजेपी के खिलाफ अपनी जबर्दस्त लामबंदी की. बीजेपी विरोधी वोटरों खासकर जाट, मुस्लिम, दलितों को वे काफी हद तक अपने पाले में लाने में कामयाब रहे. उनकी सूझबूझ ये रही कि जहां पूरी बीजेपी धारा 370, पाकिस्तान, एनआरसी की बात कर रही थी तब हुड्डा ने उन्हें मुद्दा न बनाते हुए अपने आक्रमण को प्रदेश सरकार के कामकाज तक सीमित रखा और सरकार विरोधी लहर को अपने पक्ष में भुनाया
हरियाणा में नेता की तरह कांग्रेस नीति पर भी कन्फ्यूज दिखी. चुनाव नतीजे बताते हैं कि मोदी का जादू वोटरों के सिर चढ़कर बोलता है लेकिन जब चुनाव प्रदेश के हों तो मतदाता प्रदेश के मुद्दों और प्रदेश सरकार के कामकाज को परखकर वोटिंग करते हैं. कांग्रेस ये समझने में नाकाम रही और चुनाव से पहले ही ऐसा राजनीतिक माहौल बन गया जैसे हरियाणा में विपक्ष हारी हुई लड़ाई लड़ रहा है.
बीजेपी ने 75 पार का जो नारा दिया उससे जनता मुतमईन नहीं थी लेकिन कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल होने के बावजूद उसके सामने सरेंडर करती दिखी. तमाम एग्जिट पोल (आजतक के एग्जिट पोल को छोड़कर) जब बीजेपी को 60 से 70 सीटें दे रहे थे तब हुड्डा के पुत्र और पूर्व सांसद दीपेंद्र हुड्डा को छोड़कर कांग्रेस की ओर से किसी ने इन आंकड़ों को चैलेंज करने की हिम्मत नहीं दिखाई.