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आजम खां के गैंग रेप वाले बयान की सुनवाई करेगा कोर्ट

नई दिल्ली 
क्या सार्वजिनक पदों पर बैठे मंत्री या प्रशासन के प्रभारी अपराधों के बारे में टिप्पणी कर यह कह सकते हैं कि यह राजनीतिक षड्यंत्र है। क्या ऐसे बयान संवैधानिक अनुकंपा व संवेदनशीलता की अवधारणा को खारिज करते हैं। यह मामला यूपी के बुलंदशहर में 2016 में हुए गैंग रेप से जुड़ा है, जिसमें तत्कालीन मंत्री आजम खां कहा था कि यह सरकार के खिलाफ राजनीतिक साजिश है। 

उच्चतम न्यायालय में न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता में गठित संविधान पीठ इसके साथ ही तीन अहम मुद्दों का संवैधानिक परीक्षण करेगी। संविधान पीठ में न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, इंदिरा बनर्जी, विनीत शरण, एमआर शाह और रविंद्र भट्ट शामिल हैं, मगर इससे पूर्व बेंच इस मुद्दे पर फैसला देगी कि क्या न्यायमूर्ति मिश्रा को इस बेंच से हट जाना चाहिए।

क्योंकि कई पक्षों ने आरोप लगाए हैं कि न्यायमूर्ति मिश्रा ने दूसरे मुद्दे यानी भूमि अधिग्रहण मामले में फैसले दिए हैं और उनकी राय पहले से इस मुद्दे पर बनी हुई है। बेंच के समक्ष दूसरा मुद्दा यही भूमि अधिग्रहण (उचित मुआवजा और पुनर्वास) कानून, 2013 की धारा 24 की वैधता देखना है। धारा 24 में प्रावधान है कि 1898 के कानून के पुराने के अनुसार हुए भूमि अधिग्रहण के मामले यदि लंबित हैं तो ऐसे अधिग्रहण रद्द हो जाएंगे और नए कानून के अनुसार अधिग्रहण होगा।

न्यायमूर्ति मिश्रा ने गत वर्ष इंदौर म्यूनिसिपल मामले में कहा था कि इस धारा के तहत सभी अधिग्रहण निरस्त नहीं होंगे। वहीं एक अन्य बेंच ने पुणे के एक मामले में कहा था कि ऐसे सभी अधिग्रहण निरस्त होंगे। इसके बाद यह मामला संविधान पीठ को भेजा गया। पीठ ने दो दिन इस मुद्दे पर बहस सुनी और फैसला सुरक्षित रख लिया था। केंद्र सरकार ने कहा था कि कोर्ट को इस तरह के दबाव में नहीं आना चाहिए और मामले को सुनना चाहिए। वहीं न्यायमूर्ति मिश्रा ने कहा था कि उनका अंत:करण साफ है और यदि उन्हें आश्वस्त किया जाए तो वह अपने मत को बदल भी सकते हैं।

बेंच के समक्ष तीसरा मुद्दा है कि क्या दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना कानून की धारा 6(ए)(1) का है, जिसे कोर्ट ने 2014 में निरस्त कर दिया था, लेकिन इसमें सवाल यह उठा कि इसका प्रभाव पिछली तारीख से होगा या नहीं। इस धारा में संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत मुकदमा चलाने के लिए पूर्व अनुमति आवश्यक की गई थी।

इसके अलावा एक मुद्दा राज्यपालों के कार्यकाल का है। यह मामला तब सामने आया था जब मोदी सरकार ने अनुच्छेद 156 (1) के तहत उत्तराखंड के राज्यपाल अजीज कुरैशी को बीच में ही पद से हटा दिया था। इस फैसले को कुरैशी ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।

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