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Happy Birthday Amitabh Bachchan: 77 की उम्र में सत्रह की ऊर्जा

 नई दिल्ली                                                              
हरिवंश राय बच्चन की कविता 'अग्निपथ' की ये पंक्तियां- तू न थकेगा कभी/ तू न रुकेगा कभी/ तू न मुड़ेगा कभी… मानो उनके बेटे अमिताभ की नियति का ही बखान थीं। पचास सालों के इस फिल्मी सफर में 'लंबू' से वे 'बिग बी' बने। वह सबसे अलग हैं, क्योंकि उन्होंने समय को पहचाना है। समय से होड़ नहीं की,  समय के साथ कदम मिला कर चले। करियर के पचासवें वर्ष में 'दादा साहब फाल्के' से सम्मानित सदी के महानायक को जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएं:
    
मुखपृष्ठ पर सियापा का अहसास कराती सफेद पृष्ठभूमि, गमगीन चेहरे और पस्त भाव में ‘दीवार’ पर हाथ टिकाये अमिताभ बच्चन। प्रमुखता से काले बड़े अक्षरों में लिखा ‘फिनिश्ड’। लगभग तीसेक साल पहले अंग्रेजी की अति लोकप्रिय साप्ताहिक पत्रिका के तत्कालीन संपादक ने अमिताभ बच्चन की लगातार पिट रही फिल्मों पर यही कवर स्टोरी लिख ‘समाप्त’ घोषित कर दिया था उनको। आशय था ‘चुक गये’। 44 बसंत ही देखे थे तब तक उन्होंने और परमानेंट ‘पतझड़’ का बोध करा दिया गया। निश्चित रूप में वो उनका खराब दौर था। हो सकता है, पत्रिका का सर्कुलेशन बढ़ाने में कथित आवरण कथा ‘श्रद्धांजलि’ साबित हुई हो, फिर भी उन दिनों मीडिया से बौखलाए अमिताभ ने किसी प्रकार का प्रतिकार नहीं किया। उनकी फिल्में आती रहीं, पिटती भी रहीं। समय का पहिया यकायक ऐसे घूमा कि ‘कौन बनेगा करोड़पति’ से टीवी पर जोरदार दस्तक के साथ ‘सरकार’, ‘पा’, ‘चीनी कम’, ‘ब्लैक’ जैसी फिल्मों से उनके अभिनय का वृक्ष आज लहलहा रहा है।

उनकी फिल्म ‘पीकू’ में उनका ‘मेस्मराइज्ड’ अभिनय देख सहज उस स्टोरी का ध्यान आया कि जिसे तीस साल पहले समाप्त कर दिया गया हो, वह आज भी जीवंत है। ये न उद्घाटित करूं तो उन महाशय के साथ क्रूरता और अन्याय होगा कि श्रीमंत ने कालांतर में प्रमुख राष्ट्रीर्य हिंदी दैनिक में विनम्र प्रायश्चित किया कि पत्रकारिता की यात्रा में यह स्टोरी  उनकी सबसे बड़ी भूल साबित हुई। जाहिर है, उम्र के इस पड़ाव पर जब उनके समकालीन अभिनेता सेहत के चलते लाचार हैं, उनके न सिर्फ अभिनय का, बल्कि लोकप्रियता का दायरा बढ़ता ही जा रहा है। विज्ञापन जगत में भी इतना दुलार किसी अन्य के हिस्से नहीं आया। सभी चाहते हैं उनके उत्पाद को बच्चन सर ही प्रमोट करें।

ऐसा नहीं कि उनसे पहले लोकप्रियता और शिखर से लुढ़कने का स्वाद अन्य किसी अभिनेता ने नहीं चखा। राजेन्द्र कुमार वाले दौर में कौन सा ऐसा परिवार नहीं था, जिसने सिल्वर स्क्रीन के उस अभिनेता को अपने घर के सदस्य में न निहारा हो। बावजूद इसके ‘अभिनय’ और लोकप्रियता अलग ध्रुव रहे। राजेश खन्ना इस सूची में दूसरा नाम हैं, लेकिन भूमिकाओं के चयन में उनसे भी चूक हुई। अभिनय को संवारने और करियर को ऊंचाई देने में मोतीलाल, अशोक कुमार, बलराज साहनी, संजीव कुमार सहज याद आते हैं। स्वास्थ्यगत तकलीफों और अल्पायु ने अलग-थलग कर दिया इन विभूतियों को सिल्वर स्क्रीन से। अपने समय की मशहूर तिकड़ी मैनरिज्म के चलते भले एक खांचे में फिट रही हो, अपवाद रहे दिलीप साहब की यात्रा भी सेहत के चलते ठहर गई।  

कला, राजनीति, खेल जगत, व्यवसाय सभी क्षेत्रों में उतार-चढ़ाव आते हैं, लेकिन विफलताओं की मामूली खरोंच से किसी को खारिज कर देना मात्र सुर्खियां बटोरना होता है। कुछेक फिल्में पिट जाने या दो-चार बार शून्य पर आउट हो जाने से करियर जख्मी नहीं हो जाता। बच्चन जी की ये टिप्पणी भी खूब पढ़ी जाने वाली साप्ताहिक हिन्दी पत्रिका ‘दिनमान’ में रेखांकित की गई कि ‘मेरा बेटा कहता है कि बहुत दिनों तक शीर्ष पर नहीं रहने वाला। ऐसा होने पर मैं इलाहाबाद  चला जाऊंगा और वहां जाकर दूध बेचूंगा।’ बुद्धिजीवियों के शहर इलाहाबाद में ये हृदय-जीवी आया जरूर, लेकिन अलग भूमिका में। अंतत: इलाहाबादियों की अपेक्षाओं पर विफल होने के बाद नमस्ते कर दिया राजनीति को।

कुछ साल पहले एक और अनुरागी मोशाय की काबिलीयत का बरगद इतना विशाल हो गया कि महानायक का उद्यान उनको मुरझाता नजर आने लगा। सलाह दे डाली, सर अब चुक गए आप। रिटायर हो जाइए। संयोग कि फिनिश्ड और रिटायर होने की सलाह देने वाली दोनों हस्तियां बंगाली थीं। ‘पीकू’ में बुजुर्ग बंगाली भास्कर बनर्जी का किरदार निभाने वाले अमिताभ आपादमस्तक बंगाली नजर आए। साबित कर दिया उन्होंने कि वो आराम से बैठने वाली शख्सीयत नहीं। अपनी क्षमताओं को जानते हुए लीक से हटकर साहसिक रोल चुनते हैं, जबकि उनसे उम्र में काफी छोटे दूसरे हीरो, जिनके गेटअप में भले फिल्म दर फिल्म बदलाव आ जाए, अभिनय में कोई ताजगी नहीं। 

सात की दहाई के सात फेरे पूरा कर चुका महानायक अभी भी सत्रह साल की ऊर्जा से लबरेज है। ये ऊर्जा अभिनय में नई भूमिकाएं, नई चुनौतियां स्वीकार रही है। ‘केबीसी’ के वर्तमान  संस्करण में उनकी विनोदप्रियता और सहजता पर कौंध रही हैं ये पंक्तियां- ‘वो बोलता है तो झरते हैं हीरे-मोती/ जो उससे बात भी कर ले अमीर हो जाए।’ प्रांजल भाषा उनकी शिराओं में प्रवाहमान है। वही सबसे बड़ी ताकत है उनकी। फिल्में चलती हैं, फ्लॉप होती हैं, लेकिन सशक्त अभिनय से अभिनीत भूमिका जीवंत रहती है। ताजा-ताजा ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ से सम्मानित महानायक के चाहने वालों की कामना है, क्रुद्ध युवा से सौम्य प्रौढ़ तक की यात्रा सम्पन्न करने वाला सदी का महान शख्स इसी चुस्ती-दुरुस्ती के साथ हरा-भरा रहे। सलामत रहे उनकी अनंत ऊर्जा। जीवेम शरद: शतम्।

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