राजनीति

राम मंदिर निर्माण के सहारे फिर सत्ता की दौड़ में बनी रहना चाहती है भाजपा


मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के राम मंदिर आंदोलन से जुड़े रहने का भी लाभ मिलना तय माना जा रहा है
राम मंदिर भूमिपूजन के साथ ही बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है कि प्रदेश की राजनीति पर इसका क्या असर पड़ेगा। नि:संदेह राजनीति के जानकार जहां इस ऐतिहासिक क्षण को भारतीय जनता पार्टी के लिए आने वाले वक्त में सियासी तौर मुफीद मानते हैं। वहीं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के राम मंदिर आंदोलन से जुड़े रहने का भी लाभ मिलना तय माना जा रहा है। दूसरी ओर विपक्षी दलों के लिए चुनौती होगी कि कैसे इसके मद्देनजऱ होने वाले धु्रवीकरण को रोककर सियासत को मुख्य सरोकारों से जोड़े रखा जाए। भारतीय जनता पार्टी को राम मंदिर मुद्दा हमेशा से हवा-पानी देता रहा है।

दलितों को जोडऩे भाजपा चलाएगी अभियान
भाजपा का हमेशा ही अधिकृत रूप से यह मानना रहा है कि वह कानूनी लड़ाई के जरिये इस मुद्दे पर जीत हासिल करना चाहती है। यह बात और है कि उसने अनुशांगिक संगठनों जैसे विहिप, बजरंग दल और संतों के जरिये इस मुद्दे को सदा सियासी तौर पर जिंदा रखने की कोशिश की। इसका भाजपा को लाभ भी मिला और अब उसके सियासी संकल्प की पूर्ति के बाद भी भाजपा ने एक बार फिर विहिप के जरिये राम मंदिर आंदोलन से दलितों-वंचितों को जोडऩे के लिए तीन साल तक अभियान चलाने का ऐलान किया है।

यह कदम वर्ष 2022 में विधानसभा और 2024 में लोकसभा चुनावों के मद्देनजऱ ही उठाया गया है। ऐसे वक्त में जब डेढ़ साल बाद विधानसभा चुनाव होंगे, तब तक मंदिर कुछ न कुछ स्वरूप ले चुकेगा। ऐसे में प्रतीकात्मक रूप से ही सही भाजपा चुनावी वादों को पूरा करने का दम भरे तो हैरत नहीं।

भावनाओं पर जातीय समीकरण भी रहे हैं हावी
वर्ष 1991 में पहली बार भाजपा की सरकार राम मंदिर मुद्दे के सहारे ही बनी, लेकिन 1993 में जातीय समीकरण ने भावनाओं के ज्वार को तोड़ दिया और भाजपा 177 सीटों पर अटक गई। तब भी भावनाओं का ज्वार था, लेकिन सपा-बसपा के साथ आने से यह परवान नहीं चढ़ सका। मौजूदा हालात में जातीय समीकरणों का पलड़ा सियासी समर में भारी रहता है।

भाजपा को लाभ मिल सकता है
अगर भावनाओं का ज्वार असर किया तो नि:संदेह पार्टी को लाभ मिल सकता है, लेकिन भाजपा को यह नहीं भूलना चाहिए कि वर्ष 2014 के बाद से उत्तर प्रदेश में उसकी बढ़त की मुख्य वजह उसका जातीय समीकरण को अपने पक्ष में करना रहा है। चाहे वह गैर यादव-गैर जाटव की राजनीति रही हो या फिर पिछड़ों को पाले में करने की सफल कवायद। हालांकि इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि वक्त के साथ 1993 जैसा जातीय उन्माद अब कुंद पड़ चुका है।

विपक्ष के लिए चुनौती
विपक्ष खासतौर पर कांग्रेस की कोशिश है कि इस मुद्दे को भाजपा का होने से रोका जाए। लिहाजा, उसने राम मंदिर से खुद को जोडऩे की कोशिश की है और बयान जारी किया है। विपक्ष की इस मुद्दे पर आशंकाएं इसी से समझी जा सकती है कि सपा ने बहुत ही सधे अंदाज़ में प्रतिक्रिया व्यक्त की है, तो मायावती ने इस पर सियासत न करने की सलाह देते हुए सभी को इसे स्वीकार करने की बात कही है। साफ है कि विपक्ष फूंक-फूंक कर कदम रख रहा है। वह नहीं चाहता कि इस मुद्दे पर ध्रुवीकरण हो और उसके किसी तरह की दिक्कत पेश आए।

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