देश मध्य प्रदेश

यही समय है एक गांव-एक निशान और ग्रामीण पहचान का

लेखक: आशीष श्रीवास्ताव, परामर्शदाता संचार एवं जीवन कौशल

आत्मनिर्भरता के लिए ये उपाय भी कारगर: राष्ट्रीय चिन्ह की तरह प्रत्येक गांव और जिले का अपना उत्पाद, फल, पशु-पक्षी और फूल हो और उस उत्पाद पर आधारित उद्योग स्थापित किये जाएं। साथ ही उन पहचान चिन्हों पर प्रमुखता से कार्य हो। ऐसे समय में कुछ कारगर उपाय कर लेना ही बेहतर

भोपाल. देश की अर्थव्यवस्था में योगदान देने वाला एक बड़ा कामगार वर्ग घर वापसी करते हुए सरकार और समाज की नजर में आया है। पलायन की ऐसी तस्वीरें सामने आईं, जिसने सभी को सोचने पर विवश कर दिया। अब तक ओझल रहा ये देश का कामगार वर्ग अब अपने गांव लौट रहा है। ऐसे में ग्राम स्वराज और आत्मनिर्भरता की बातें भी जोर-शोर से की जा रही हैं। कहा जा रहा है कि यदि हमने आत्मनिर्भर भारत बनाने और महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के सपने को साकार करने में पहले ही दिलचस्पी दिखाई होती तो आज सड़कों पर प्रवासी मजदूरों का भयावह दृश्य मन को पीड़ा नहीं पहुंचा रहा होता।

अब जबकि बड़ी संख्या में ये कामगार वर्ग अपने गांव लौट रहा है, तो एक बार फिर हमारे सामने यह चुनौती है कि जब हम अपनी योजना, परियोजना और महापुरुषों के आत्मनिर्भर भारत बनाने के सपने को साकार कर सकें। मेरे द्वारा इस पर गहन विचार किया गया, कई लोगों से चर्चा भी की गई और स्थिति को गांव जाकर समझा भी, तब एक ऐसा आइडिया दिमाग में उपजा जिसकी चर्चा यहां करना जरूरी समझता हूं। ये इसलिए भी, ताकि पाठकगण न केवल अपने विचार व्यक्त कर सकें , बल्कि अधिक-से-अधिक अपनी प्रतिक्रिया से भी अवगत करा सकें, ताकि ये आइडिया और भी प्रभावी तरीके से लागू किया जा सके।

जब मैं सोचता हूं कि गांवों को कैसे उन्नत बनाया जाए और गांवों से कैसे पलायन रोका जाए, तब मेरे मन में यह विचार आता है कि प्रत्येक गांव को उसके प्रमुख उत्पाद से जोड़ दिया जाए, फिर चाहे उस गांव की पहचान उस उत्पाद से होने लगे तो भी चलेगा। इससे निश्चित ही गांवों की तस्वीर बदलेगी और गांव विकसित हो सकेंगे। इसके लिए हमें जनभागीदारी से आगे बढऩा होगा।

एक परामर्शदाता के रूप में विशेषज्ञों, प्रशिक्षकों से बात करके और गांवों में जाकर स्थिति को समझने के बाद मन-मस्तिष्क एक बार फिर ये महसूस कर रहा है कि गांवों को आत्मनिर्भर बनाने, वहां आजीविका के साधन बढ़ाने और पलायन को रोकने का काम मुश्किल नहीं है। दरअसल, इसे इस तरह से समझ सकते हैं कि जो भी कामगार महानगरों में गया वह अपने जीवन स्तर को ऊंॅचा उठाने के लिए गया, लेकिन ये काम गांव में रहकर भी हो सकता है। यदि हम गांव की ताकत, कमजोरी, अवसर और चुनौती को ध्यान में रखते हुए उपलब्ध संसाधनों का युक्तिसंगत उपयोग कर सकें।

जैसा कि कहा जा रहा है कि आत्मनिर्भरता का मतलब ये नहीं कि हम केवल स्वदेशी चीजें खरीदने पर ही जोर दें या विदेशी चीजों का बहिष्कार करें, बल्कि आत्मनिर्भरता का मतलब अपनी जरूरत की चीजें हम स्वयं उत्पादित करें और उनकी गुणवत्ता इस प्रकार रखें कि उनकी मांग तेजी से बढ़े। ऐसा ब्रांड बनाएं, जिसकी मांग देश में ही नहीं विदेशों में भी हो। अभी तक गांव केवल बड़े उद्योगों के लिए कच्चा माल बने हुए हैं, इसलिए ग्रामीणों को पूरा लाभ नहीं मिल पा रहा है और जीवन स्तर में भी सुधार नहीं हो पा रहा है।

इसलिए आत्मनिर्भर भारत के लिए जरूरी है कि हम ऐसी तकनीक विकसित करें जो किसी भी तरह विदेशी उत्पादों से कम न हो। कीमत भी ऐसी हो जो लोगों की पहुंच में हो। गांव में जो भी निर्माण कार्य हों वह आगामी चालीस-पचास साल के ग्रामीण परिदृश्य को देखकर दूरदर्शितापूर्ण योजना बनाकर किए जाएं। शहरों की तरह ऐसा ना हो एक बार रोटरी बना दी फिर दो-चार साल बाद तोड़ दी गई। इसके अलावा गांव की उपजाऊ जमीन पर पक्के निर्माण या किसी भी गतिविधि, जो भूमि को बंजर बनाती हो, पर सख्ती से रोक लगाई जाना चाहिए।

मेरे विचार से इसके लिए पहले एक सर्वे टीम बनाई जाए जो गांवों का अध्ययन करे, ताकि प्रदेश के सभी गांवों को पूरा लाभ पहुंचाया जा सके। ये सर्वे टीम गांवों में प्रमुखता से होने वाले उत्पाद और वहां उद्योग की संभावना का पता लगाएगी। इसके बाद उस गांव का प्रमुख उत्पाद निश्चित कर दिया जाएगा।

जैसे अच्छे किस्म के धनिए के लिए कुंभराज, गुड़ और चने के लिए करेली और दलिया वाले गेहूं के लिए गंजबसौदा प्रसिद्ध है। ठीक वैसे ही प्रत्येक गांव का अपना उत्पाद होगा और उसी गांव में उस उत्पाद के प्रसंस्करण की सभी जरूरी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएगी और हां भंडारण की भी ठोस व्यवस्था हो। कृषि मशीनरी के लिए हमें दूसरों पर निर्भर न रहना पड़े। इसमें पूरा गांव एक इकाई के रूप में कार्य कर सकेगा। स्वयं सहायता समूह और स्वयंसेवी संगठनों को भी इस कार्य में सहायता ली जा सकती है।

मुझे अच्छे से याद है कि बचपन में मेरे दादाजी के गांव परसोन में ऐसे कबीट उगते थे, जिन्हें यदि सुखा लिया जाए तो वह और भी ज्यादा स्वादिष्ट और मीठा-सा लगने लगता था। हम दादाजी की कई बार इसीलिए प्रतीक्षा करते थे कि वे आएं और अपने साथ सूखे कबीट लेकर जरूर आएं। ऐेसे बढिय़ा कबीट मुझे कहीं पर भी कभी खाने को नहीं मिल सके। ये ठीक वैसी ही बात है जैसे शिर्डी का मीठा नीम जगप्रसिद्ध है। कबीट के पेड़ की उस प्रजाति और विशेषता को दूसरे गांव भी अपना सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कभी हिमालय की तराई में उगने वाले ब्रम्हकमल अब कुछेक जगह भोपाल में भी खिल रहे हैं।

गांव के चिन्ह निर्धारित करने के बाद वहां अंतरराष्ट्रीय मानक पर खरे उतरने वाले, अधिक मांग वाले और लोगों की पसंद के पक्के उत्पाद तैयार कराए जाएंगे। गांववासी ही उस उत्पाद को मिलकर तैयार करेंगे और लाभ का हिस्सा सभी में बराबर बांटा जाएगा। इसके लिए गांव के लोगों को बकायदा प्रशिक्षण दिया जाएगा। दुर्लभ प्रजाति के पशु-पक्षियों को बचाया जा सकेगा। उनका संरक्षण और संर्वधन में तेजी आ सकेगी। फल-फूल और ऐतिहासिक धरोहरों को विश्व मानचित्र में उभारा जा सकेगा। जैसे आज रतलामी नमकीन और सूरत का कपड़ा प्रसिद्ध है, ठीक वैसे ही वह गांव उस विशेष उत्पाद के लिए जाना जाएगा।

गांव के बीचों बीच, मंडी में या गांव की शुरुआत में निर्धारित पहचान चिन्हों की प्रदर्शनी लगाई जाएगी, जिनमें पहचान चिन्हों के संरक्षण, संवद्र्धन और गांव की प्रगति की झांकी होगी। इतना ही नहीं चाहें तो गुलाबी नगरी की तरह प्रत्येक गांव को विकसित किया जा सकता है, इससे ग्रामीण पर्यटन को बढ़ावा मिल सकेगा। इसके लिए अधिक रुपए खर्च करने की भी आवश्यकता नहीं, बस जागरुकता और समझाईश की जरूरत है। गांववासी अपने उत्पाद की अच्छी छवि के लिए भी कार्य करेंगे।

इससे क्षेत्र विशेष और वहां के लोगों की क्षमता, समय और पैसे का उपयोग करते हुए उनमें आपसी सद्भाव और रचनात्मक भावना का विकास किया जाना भी संभव हो सकेगा। इससे गांवों से होने वाला पलायन रुकेगा, गांव आत्मनिर्भर होंगे, गांवों में समृद्धि आएगी और गांव में फैली कई बुराईयों का शमन भी हो सकेगा। समूचा गांव एक टीम एक इकाई की तरह लोगों के सुख-दु:ख में कार्य करेगा और अपने परिश्रम का पूरा इनाम पाएगा। प्रत्येक गांव जागरूक हो सकेगा। मध्यप्रदेश के 52 हजार 903 आबाद गांवों में यदि इस पर काम किया जाए तो निश्चित ही खुशहाली की एक नई इबारत लिखी जा सकती है।

एक और कमी जो महसूस होती है, वह यह कि हमारे देश के युवा उद्योग-व्यवसाय की स्थापना के लिए आगे क्यों नहीं आते, इसका एक बड़ा कारण जानकारी का अभाव है। उन्हें पर्याप्त, उपयुक्त मशीनों की जानकारी नहीं है। वे जो उत्पाद उपयोग करते हैं वे बनाना नहीं जानते। यदि आप किसी विद्यालय, महाविद्यालय या गांव में जाएं और पूछें कि वे क्या बनना चाहते हैं तो डॉक्टर, इंजीनियर, खिलाड़ी यहां तक कि मामूली कर्मचारी बनने तक की बात तो युवा कहते हैं, लेकिन स्वरोजगार अपनाने या उद्योगपति बनने की बात कोई नहीं कहता। ऐसे क्या कारण हैं, जो एक युवा को उद्योगपति बनने से रोकते हैं, हमें उन कारणों की पड़ताल करके उन्हें दूर करना होगा। मैंने युवाओं से बात करके एक और बड़ी कमी महसूस की वह यह कि युवाओं को योजनाओं के बारे में ठीक से नहीं पता।

यदि छोटे शहरों में भी मशीनरी और उत्पाद निर्माण संबंधी मेले-प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाएं तो मेरे विचार से युवाओं की रुचि बढ़ सकती है। यानी बेरोजगारी की दर कम की जा सकती है और बेरोजगारी की दर कम होना मतलब कई अन्य समस्याओं का अपने आप दूर हो जाना भी है। मध्यप्रदेश में जब आइडियाज फॉर सीएम वेबसाइट प्रारंभ हुई थी, तब भी जानकार लोगों से गहन चर्चा के बाद इस प्रकार के सुझाव दिये गए थे, लेकिन आज तक हुआ कुछ नहीं।

एक और बात जो समझ में आती है वह यह कि हांसिये पर पड़े समुदायों के उत्थान के लिए ग्रामीण सेवा और सुविधा केन्द्र की स्थापना की जाना चाहिए। कल्याणकारी राज्य में गरीबी के नए रूपों पर बहस से प्रेरित सामाजिक समावेश की योजना बनाई जाना चाहिए। घर लौट रहे सड़क चलते कामगारों को भोजन के पैकेट बांटना उनकी सहायता करना तो ठीक है, लेकिन हमें उनके लिए गांव में ही स्थायी एवं ठोस व्यवस्था ऐसी करना होगी, ताकि ये पलायन रुक सके और ऐसी भीषण एवं दर्दनाक स्थिति का सामना किसी को फिर न करना पड़े। इसके लिए हमें चाहिए कि हम गांव वापस लौटे कामगारों की ओर सहारे का हाथ बढ़ाएं और ऐसा स्थान बनाएं, जहां उनका सामाजिक समावेश कर विकास में भागीदार बना सकें। कहा भी गया है न, कि किसी को एक रोटी देने से अच्छा है उसे रोटी बनाना सिखा दिया जाए। यहां जीवन कौशल, आजीविका कौशल और जीवन शैली का यही परिदृश्य लागू करना पड़ेगा।

हमें गरीबों के सामाजिक बहिष्कार को रोकना होगा। देखा गया है कि गरीब, अनपढ़ तथा शारीरिक श्रम करने वाले तबके के लोगों को हमेशा समाज से बाहर का समझा जाता है, जबकि यह हमारे समाज का ही हिस्सा है। देश के कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहां गरीबों को आगे आने का अवसर नहीं मिल पाता है। ऐसे में बेरोजगारी बढऩा स्वाभाविक है। गरीबी से जूझ रहे लोग अपने सामाजिक, राजनीतिक और मूल अधिकारों से भी वंचित रह जाते हैं। इसी को देखते हुए गरीबों के उत्थान के लिए सामाजिक समावेशन की पहल की जाना चाहिए, ताकि शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, परिवहन, संचार और पानी-बिजली जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को बढ़ावा देने के साथ ही उन्हें जागरूक किया जा सके।

ग्रामीण सेवा और सुविधा केन्द्र एकजुटता की भागीदारी पर कार्य करेगा। इसके अन्तर्गत भेदभाव, समूह भेद को दूर करने के लिए बातचीत को प्रोत्साहित किया जाएगा। सामाजिक बहिष्कार का सामना कर रहे समूहों, कामगार समूहों की पहचान करना विशेषकर आदिवासी बहुल्य क्षेत्रों में, जहां बुनियादी सुविधाओं का अभाव है, वहां प्रभावशाली तरीके से सुविधाओं का विस्तार किया जाना होगा। कुपोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य और बेरोजगारी कार्यप्रणाली के प्रमुख केन्द्र बिन्दु होना चाहिए। ऐसे गांवों की पहचान जहां अनुसूचित जातियों, जनजातियों और गरीबी से प्रभावित महिला कामगारों की संख्या अधिक है, वहां सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक शिक्षा के साथ मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए कार्य करना होगा। पेयजल और स्वच्छता को बढ़ावा देना, महिला अधिकार, सूचना का अधिकार और वंचित समूहों का सशक्तिकरण करना भी शामिल करना होगा।

आजादी को सार्थक करना हो चाहे महापुरुषों के सपने को साकार। हमें समाज के अंतिम व्यक्ति के जीवन स्तर को भी ऊपर उठाना होगा। भारत की सबसे बड़ी शक्ति भारतीय मनीषा रचनात्मक मानव संसाधन है। समाज के अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति की तरक्की हमारा लक्ष्य होना चाहिए। लोगों और सरकार के चिंतन का केन्द्र बिन्दु अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति की बेहतरी होगी तो ही आर्थिक परिवर्तनों का सही लाभ होगा। हमें सबसे पहले भिखारियों की बढ़ती संख्या को रोकना होगा। इसके लिए कामगारों के पुनर्वास को पूरी दृढ़ता से मूर्तरूप देना होगा।

मेरा मानना है कि जब तक समस्त जीवों को मूलभूत सुविधाएं न मिल जाएं, तब तक विकास के मायने अधूरे हैं। केवल पक्की सड़कें, पक्के मकान बना देना ही विकास नहीं इनका उपयोग सभी लोग कर सकें और अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठा सके तो मैं समझूंगा कि हम सही विकास की ओर बढ़ रहे हैं। इसलिए अब व्यवस्थित तरीके से गांव के विकास और आत्मनिर्भरता की कहानी लिखना होगी।

ऐसे समय जबकि सरकार द्वारा कोई नहीं रहेगा बेरोजगार सबको मिलेगा रोजगार अभियान शुरू किया जा रहा है और मनरेगा को सशक्त बनाया जा रहा तब इस पर गंभीरता और संवेदनशीलता से मंथन करना आवश्यक होगा। इससे न केवल आने वाले समय में पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा पर्यटक अधिक आकर्षित होंगे, बल्कि राज्य की छवि में पहले से ज्यादा और सुधार होगा। दूसरे राज्य भी अनुकरणीय पहल करेंगे। हजारों लोगों विशेषकर महिलाओं और बच्चों का जीवन सुधरेगा।

दक्षता प्राप्त सेवाभावी मानव समूह तैयार हो सकेगा। सुंदरता बढ़ेगी और पर्यटकों में उत्सुकता बढ़ेगी। जरूरी चीजों का उत्पादन भी स्थानीय स्तर पर बढ़ेगा तो सुविधाएं भी बढ़ेंगी। कई बच्चों का भविष्य उज्जवल हो सकेगा। अपराधों में कमी आएगी। सरकारी अनुदान का सही मायने में सदुपयोग हो सकेगा। विकसित राज्य के सपने को सच्चे अर्थों में पंख लग पाएंगे।

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