देखी सुनी

मुझे कोई ऐसा नौजवान नजर नहीं आता, जो मेरे कारवां को आगे ले जा सके : बाबा साहेब

काका कालेलकर को बाबा साहेब ने जवाब दिया कि यदि पिछड़े वर्ग का उत्ताथन करना है तो उनके अंदर बड़े लोग पैदा करो

भोपाल. बाबासाहेब अम्बेडकर को जब पिछड़ा वर्ग आरक्षण देने के लिए बना काका कालेलकर कमीशन 1953 में मिलने के लिए गया, तब कमीशन का सवाल था कि, आपने सारी जिन्दगी पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए लगा दी। आपकी राय में उनके लिए क्या किया जाना चाहिए। बाबासाहब ने जवाब दिया कि, अगर पिछड़े वर्ग का उत्थान करना है, तो उनके अन्दर बड़े लोग पैदा करो।

काका कालेलकर यह बात समझ नहीं पाए। उन्होंने फिर सवाल किया बड़े लोगों से आपका क्या तात्पर्य है। इस पर बाबासाहब ने जवाब दिया कि, अगर किसी समाज में 10 डॉक्टर, 20 वकील और 30 इंजीनियर पैदा हो जाएं, तो उस समाज की तरफ कोई आंख उठाकर भी देख नहीं सकता।

इस वाकये के ठीक 3 वर्ष बाद 18 मार्च 1956 में आगरा के रामलीला मैदान में बोलते हुए बाबा साहेब ने कहा मुझे पढ़े लिखे लोगों ने धोखा दिया। मैं समझता था कि ये लोग पढ़ लिखकर अपने समाज का नेतृत्व करेंगे, मगर मैं देख रहा हूं कि, मेरे आस-पास बाबुओं की भीड़ खड़ी हो रही है, जो अपना ही पेट पालने में लगी है। यही नहीं, बाबासाहब अपने अंतिम दिनों में अकेले रोते हुए पाए गए।

जब वे सोने की कोशिश करते थे, तो उन्हें नींद नहीं आती थी और वे अत्यधिक परेशान रहते थे। परेशान होकर उनके स्टेनो एवं सचिव नानकचंद रत्तु ने बाबासाहब से सवाल पूंछा कि, आप इतना परेशान क्यों रहते हैं। इस पर उनका जवाब था, नानकचंद, ये जो तुम दिल्ली देख रहो हो, इस अकेली दिल्ली में 10,000 कर्मचारी, अधिकारी यह केवल पिछड़ी एवं अनुसूचित जाति के हैं, जो कुछ साल पहले शून्य थे। संविधान में मिले अधिकारों के कारण ही यह सब सरकारी नौकरी में हैं, इसके लिए मैंने कितना संघर्ष किया है, शब्दों में बयान करना मेरे लिए संभव नहीं है।

मैंने अपनी जिन्दगी का सब कुछ दांव पर लगा दिया, अपने लोगों में पढ़े लिखे लोग पैदा करने के लिए। क्योंकि, मैं समझता था कि, मैं अकेल पढ़कर इतना काम कर सकता हूं, तो हमारे हजारों लोग पढ़ लिख जाएंगे, तो इस समाज में कितना बड़ा परिवर्तन आएगा। मगर नानकचंद, मैं जब पूरे देश की तरफ एवं अपने समाज की तरफ निगाह डालता हूं, तो मुझे कोई ऐसा नौजवान नजर नहीं आता है, जो मेरे कारवां (संघर्ष के मार्ग) को आगे ले जा सके। नानकचंद, मेरा शरीर मेरा साथ नहीं दे रहा है।

जब मैं मेरे मिशन के बारे में सोचता हूं, तो मेरा सीना दर्द से फटने लगता है। जिस महापुरुष ने अपनी पूरी जिन्दगी, अपना परिवार, चार बच्चे आंदोलन की भेंट चढ़ा दिए, जिसने पूरी जिन्दगी यह विश्वास किया कि, पढ़ा लिखा वर्ग ही अपने शोषित वंचित भाइयों को आजाद करवा सकता है, उनको बराबरी का हक व अधिकार दिलवा सकता है। लेकिन आज नौकरी करने वालों में ज्यादातर लोगों का ध्यान समाज के शोषित, वंचित लोगों से हट गया है, जिनको अपने लोगों को आजाद करवाने का मकसद अपना मकसद बनाना चाहिए था।

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