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महंगाई के दुश्चक्र से कैसे उबरें भारतीय

आरएस सिंह राजपूत (एडवोकेट)

खरीद कीमत से कई गुना कीमत पर बिका पेट्रोल और डीजल थोड़ा सस्ता कर सरकार भले ही खुश हो रही हो, पर इससे जो महंगाई बढ़ी है, उसके नीचे आने का कोई आसार नहीं है। इस महंगाई के साथ दो और बातें जमाखोरी और कालाबाजारी भी अपने रंग दिखा रही है। कोरोना के दुष्काल में हैरान-परेशान आम आदमी के लिए लगता है, यह सबसे मुश्किल काल आ गया है। एक जुमला है कि अगर पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ते हैं तो महंगाई को बढऩे से कोई नहीं रोक सकता। ये कदम दूसरी लगभग हर वस्तु को महंगा कर देता है।

देश पिछले तीन साल से आर्थिक मंदी से गुजर रहा था। कोरोना का दुष्काल आ गया। इससे निपटने के लिए लॉकडाउन का तरीका अपनाया, सह उत्पाद के रूप में मंदी और बेरोजगारी बढ़ गई। इस बार महंगाई बिल्कुल अलग परिस्थितियों में आ रही है। यानी अर्थशास्त्रियों को इस बार चुनौती है कि जल्दी से सोचकर बताएं कि क्या किया जाए।

पिछले दशक में वैश्विक मंदी ने बड़े-बड़े देशों में संकट खड़ा कर दिया था। उसी तर्ज पर मंदी से निपटने के लिए अपने देश ने हैसियत से कहीं ज्यादा रकम खजाने से बाहर निकाल ली थी। अर्थशास्त्र का सिद्धांत है कि जब भी बाजार में ज्यादा रकम डाली जाती है, तब-तब महंगाई जरूर बढ़ती है। पिछले दशक में उन दिनों महंगाई इसी कारण से बढ़ी थी, क्योंकि सरकार ने खुले हाथ से बाजार में पैसा डाला था। आज भी सरकार भारी भरकम राहत पैकेज देकर उसी तरह खर्च करने का इरादा कर चुकी है। पैसा चाहे कर्ज का हो या मेहनत का, उपभोक्ताओं की जेब में पैसा पहुंचता है, तो मुद्रास्फीति यानी महंगाई बढ़ती ही बढ़ती है।

सरकार मंदी से निपटने के लिए नया फार्मूला लाई है। सरकार ने उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया है। इसके विपरीत कई अर्थशास्त्री चेता रहे थे कि दिक्कत उत्पादन कम होने की नहीं, बल्कि बाजार में मांग कम होने की है। अर्थशास्त्र में स्पष्ट है कि मांग तब बढ़ती है, जब उपभोक्ताओं की जेब में पैसा हो। लेकिन मंदी, कोरोना और कोरोना से निपटने के लिए लॉकडाउन और बढ़ती बेरोजगारी ने उपभोक्ताओं की हालत खराब कर दी है। ऐसी हालत में महंगाई का बढऩा, एक बड़ा फंदा है, जो आम नागरिकों के दम को घोट रहा है।

सही मायने में मंदी और लॉकडाउन ने उत्पादकों को भी बुरी तरह तबाह किया है। वे इस हाल में ज्यादा माल बनाने का जोखिम नहीं उठा पाएंगे। एक दृश्य बाजार में दिखेगा, बाजार में माल भी कम हो और खरीदार भी कम हों। अर्थशास्त्र के प्रचलित सिद्धांतों के मुताबिक यह विरोधाभासी स्थिति है। ये कुछ ज्यादा ही गंभीर मंदी के लक्षण हैं। सारे अर्थशास्त्रियों के सामने यह बहुत बड़ी चुनौती होगी कि वे कोई नया तरीका सोच कर बताएं।

सब जानते हैं कि प्रत्यक्ष रूप से सरकार खुद तो कोई व्यापार नहीं करती है। करों से यानी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष टैक्स लगाकर जो पैसा जनता से वसूला जाता है, उसे ही सरकार जन कार्यों पर खर्च करती है। पिछले कुछ साल से हालात ऐसे बन गए कि सरकार के पास पैसों की कमी आ गई है। अपने वायदे तक पूरा करने में ही उसे दिक्कत आने लगी है। अभी जिन मुश्किलों का सामना सरकार को करना पड़ रहा है, उससे इस साल के बजट में कई नई योजनाओं को कुछ समय के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है।

सरकार को खजाने की हैसियत से कहीं ज्यादा बड़े बड़े राहत पैकेजों का ऐलान करना पड़ रहा है। ये राहत पैकेज कर्ज के रूप में ही ज्यादा हैं। तो भी तो पैसा पहुंचेगा तो लोगों की जेबों में ही। घूम फिर कर मुद्रास्फीति यानी महंगाई के पूरे आसार बने दिख रहे हैं। महंगाई बढऩे के पहले से बने आसार में डीजल पेट्रोल के दाम बढ़ाया जाना तो पहला कदम होता ही है। यह पहला कदम ही तो महंगाई का श्री गणेश है।

अगर लोगों के पास पैसा हो तो वे महंगाई को झेल जाते हैं। लेकिन बाजार में मांग ही नहीं होगी तो औद्योगिक उत्पादन और ज्यादा घटने को रोकना बहुत ही मुश्किल है। अर्थशास्त्रियों को बताना चाहिए कि बेरोजगारी को घटाकर और उपभोक्ताओं की क्षमता बढ़ाकर बाजार में मांग बढ़ाने के तरीके क्या हैं। उद्योग व्यापार जगत इसीलिए परेशान है कि बाजार में उपभोक्ता गायब होते जा रहे हैं। उद्योग जगत को भी अपनी तरफ से मांग उठाकर यह पहल करना होगी कि उसे पहले ज्यादा उपभोक्ता कैसे मिले।

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