बिहार में जाति आधारित जनगणना कराने का प्रस्ताव विधानसभा में पारित

 

पटना
बिहार में गुरुवार को जाति आधारित जनगणना को लेकर विधानसभा में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास कराया गया है। प्रदेश विधानसभा के सभी दलों ने राज्य में साल 2021 में जातीय आधार पर जनगणना कराने को मंजूरी दी है। सरकार के इस फैसले को सत्तापत्र के साथ-साथ विपक्ष के नेताओं का भी पूरा समर्थन मिला है। तमाम राजनीतिक मुद्दों पर एक दूसरे के खिलाफ रहने वाले आरजेडी-जेडीयू इस बार इस मुद्दे पर एक साथ खड़े दिखे हैं।

चुनावी साल में हुए इस फैसले के कई मायने भी हैं, पर सबसे बड़ा अर्थ उस चुनाव से जुड़ता है जिसे इस साल के अंत में कराया जाना है। माना जा रहा है कि नीतीश इस फैसले से खुद को पिछड़ों के एक ऐसे विश्वासपात्र के रूप में प्रशस्त करना चाहते हैं, जो कि सिर्फ विपक्ष ही नहीं बीजेपी को भी चुनावी समर में अपनी ताकत का एहसास करा सके।

बिहार में इस साल के अंत तक विधानसभा का चुनाव होना है। सियासत की जैसी स्थितियां हैं, उन स्थितियों में यह माना जा रहा है कि नीतीश इस बार भी एनडीए गठबंधन के साथ अपनी दावेदारी करेंगे। नीतीश ने इसे लेकर संकेत भी दे दिए हैं और बीजेपी खुद भी उनके नाम का समर्थन कर रही है। लेकिन अगर अतीत पर गौर करें तो यह दिखता है कि नीतीश 2015 के चुनाव में आरजेडी के साथ महागठबंधन के नेता के रूप में ही सत्ता में आए थे। इसके बाद परोक्ष रूप से बीजेपी ने जेडीयू को समर्थन दिया तो सत्ता के केंद्र में बैठी आरजेडी विपक्षी बन गई। सीएम नीतीश के बीजेपी के साथ जाने पर आरजेडी ने उनपर पिछड़ी और दलित बिरादरी के उन वोटरों के साथ धोखाधड़ी का आरोप लगाया, जिसने महागठबंधन को वोट दिया था।

बीजेपी के समर्थन से दोबारा सीएम बनने के बाद से ही नीतीश पिछड़े वोटरों को खुश करने की तमाम कोशिशों में लगे रहे। हालांकि राजनीतिक जानकार यह मानते हैं कि नीतीश पिछड़े वोटरों के बीच कमजोर नहीं हुए हैं, लेकिन तेजस्वी यादव के बढ़ते प्रभाव के बीच ही नीतीश को जातियों का विश्वासपात्र बनना जरूरी लगा है। इसी बड़ी वजह के आधार में जातिगत जनगणना की पटकथा लिखी गई है।

पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों को साधने की कोशिश
दूसरी ओर बिहार में लंबे वक्त से पिछड़ी जाति के वोटरों का सत्ता में दखल देखने को मिला है। जातियों के वोट पर्सेंट की बात करें तो बिहार में 40 फीसदी से अधिक ओबीसी या ईबीसी वोटर हैं। यही जातियां नीतीश कुमार की कोर वोटर रही है जो कि बीते कई सालों से बिहार में जातिगत जनगणना की मांग कर रही है। इसके अलावा बिहार में 14 फीसदी यादव, 6.5 फीसदी कोइरी, 17 फीसदी सवर्ण और 16 फीसदी दलित वोटर हैं। इसके साथ-साथ करीब 17 फीसदी वोटर मुसलमान हैं। ओबीसी जाति के बड़े प्रभाव के बीच ही इन जातियों के नेता लंबे वक्त से जाति आधारित प्रतिनिधित्व की मांग करते रहे हैं। वीपी सिंह की सरकार के वक्त से ही देश के एक बड़े हिस्से में जिसमें बिहार प्रमुख है, यह मांग उठती रही है कि अगर ओबीसी जातियों का 40 फीसदी हिस्सेदारी है तो उनके आरक्षण का अंश सिर्फ 27 फीसदी ही क्यों है? वहीं जातिगत जनगणना की मांग के साथ आरक्षण के प्रावधानों की समीक्षा की आवाज भी उठती रही है। ऐसे में यह माना जा सकता है कि जातिगत जनगणना के फैसले से नीतीश ने ओबीसी वोटरों को इसी समूह को साधने की कोशिश की है।

सीक्रेट फॉर्म्युले पर काम कर रहा एनडीए
जातीय जनगणना भी बीजेपी-जेडीयू गठबंधन के उसी सीक्रेट प्लान का हिस्सा है, जिसपर बीते 2-3 सालों से बिहार में काम किया जा रहा है। यह प्लान लालू यादव के जेल जाने के बाद से ही प्रभावी है और इसी के तहत भूपेंद्र यादव और नित्यानंद राय सरीखे नेताओं को सरकार से लेकर संगठन तक तरजीह दी गई है। यह प्लान बिहार की पिछड़ी जातियों, खासकर यादव वोटरों को अपने पक्ष में खींचने का है और इसी का एक पक्ष जातीय जनगणना का फैसला भी है। बीजेपी ने इसी प्लान के तहत भूपेंद्र यादव को बिहार का प्रभारी और राष्ट्रीय महासचिव बनाया और फिर यादव जाति के ही बड़े नेता नित्यानंद राय को 2019 में गृह मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण विभागों की जिम्मेदारी दी। दूसरी ओर बीजेपी सवर्ण और दलित वोटरों को भी साधने में जुटी हुई है। इन सब के साथ दलित बिरादरी के समर्थन का जिम्मा एलजेपी नेता रामविलास पासवान के पास है। इन सभी फॉर्म्युले के बीच एनडीए की स्थितियां संतुलित मालूम पड़ रही है।

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