देखी सुनी

फिर महफिलें सजेंगी, फिर इफ्तारी होगी, इसी उम्मीद में दिन गुजर रहे हैं

इफ्तार….यादें ही शेष हैं..

करीम मियां बरकत अली की ओर देखते हुए जो कि अपने कटोरे में बचे हुए टुकड़ों को निपटा रहे थे, लम्बी सांस भरते हुए बोले-

क्या दिन थे, वल्लाह, सोचता हूं तो आंखों में आंसू दरिया ए दजला-फरात की तरह बहने लगते हैं। पूरे एक महीने शाम का खाना बनता कहां था। पूरे रमजान में हर रोज इफ्तारी के लिए चापलूस लाला लोग, धोती वाले नेता, बड़े-बड़े अफसर, घर पर आकर इफ्तारी के लिए चिरौरी करते थे। अपने ऑफिस, घरों और विधानसभा तक में इफ्तारी पर हमारा इस्तकबाल होता था।

कुल 30 इफ्तारी और 300 नेताओं की खुशामत। जिससे हां कर देते थे वो बेवकूफ, चूम-चूम कर शुक्रिया में अपने गलीज थूक से हमारा हाथ गीला कर देते थे। बाद में चूल्हे की राख

से हाथ धोना पड़ता था। लिल्लाह, क्या जमाने थे।

डिग्गी राजा, गुलाम जादो, आलू जादो, खुजली वाल तो अक्सर मंदिर में इफ्तार कराते थे। मंदिर की मूरतों पर कपड़ा डलवा देते थे। मंदिर में नमाज पढऩे का अपना ही मजा होता था। नमाज पढ़ी, वहीं इफ्तारी की। शानदार दावत हुई, मिठाई का डिब्बा थामा, घर की राह पकड़ी, बीबी जान को डिब्बा थमाया।

 

बच्चों की अम्मा बोली क्या ले आये, मुल्लाजी, डिब्बा बच्चों की अम्मी को थमाकर, हम आंख मार के कहते, होशियार खाते बेवकूफ खिलाते हैं। लटकती टाट-चटाई के पीछे से अम्मा के ठहाके लगाने की आवाजें आज भी हमारे कानों में गूंजती हैं। अब्बा दूसरी जगह इफ्तारी में देसी घी की बिरयानी झोरने गए हुए होते थे। मगर, अब सब खत्म हो गया। उधर मोदी, इधर, जोगी, सब खत्म, अब खुद के पैसों और साठ रुपए दर्जन वाले केलों और नमक से रोजा खोलना पड़ता है।

मुहं झुलसों कब उतरोगे गद्दी से। कब पुराने दिन लौटेंगे, सारा रमजान का बजट ही बिगड़ गया। अपनी जेब से इफ्तारी की तो बच्चों को भी फिजूल खर्ची की आदत न पड़ जाएगी। कल लौकी खाकर रात में सो गए। ख््वाब में क्या देखते हैं कि इफ्तारी में मुमताज बेगम मुर्गे का ‘एक फीट लम्बा’ ‘लेग-पीस’ इसरार कर-कर के हमारे मुंह में घुसेड़ दे रही हैं। हम मना कर रहे हैं, मगर वो मान नहीं रही हैं।

अकलेस जादौ, राउल गांदी, सिपाल सिंह जादौन हमारे मुंह में काजू-पिस्ता आइसक्रीम की पूरी ब्रिक घुसेड़े दे रहे हैं। मोटी आइसक्रीम की सिल्ली घुसेडऩे से हमारा मुहं चिर गया। मीठा-मीठा दर्द होने लगा, दर्द से आंख खुल गई। देखते क्या हैं, चारपाई के लकड़ी के पाये का ऊपर का गोल हिस्सा हमारे मुंह में धंसा हुआ है। जिसे हम आइसक्रीम की सिल्ली समझ कर नींद में चबाने की कोशिश कर रहे थे।

बड़ा वाला लौंडा बगल में सो रहा था, उसने हमारे सिर के बाल पकड़ कर हमें अपनी ओर खींचा तो, हमारा मुहं लकड़ी के पाये से आजाद हुआ, मगर मुहं में काफी चोट आ गई और आगे के दो दांत लकड़ी के चारपाई के लकड़ी के पाये में धंसे रह गए। दो दांतों की कुर्बानी हो गई सिपाल जादौ की आइसक्रीम के चक्कर में। खैर कोई बात नहीं, फिर से महफिलें सजेंगी, फिर से इफ्तारी होगी, इसी उम्मीद में दिन गुजर रहे हैं। फिर से लोग कहेंगे खुशामदीन, रमजान मुबारकां।

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