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गुमनामी की जिंदगी जी रहीं लोकगीतों की चलती-फिरती कोश माया देवी 

वाराणसी  
काशिका बोली में पारंपरिक लोकगीतों का खजाना सहेज कर रखने वाली दिग्गज कलाकार माया द्विवेदी बनारस के पक्के महाल में गुमनामी की जिंदगी बिता रही हैं। अपनी गायिकी के जादू से उन्होंने पूर्वांचल के रेडियो श्रोताओं के दिलों पर लगभग डेढ़ दशक तक राज किया। 83 वर्षीय माया द्विवेदी वर्ष 1973 से 1985 तक आकाशवाणी के इलाहाबाद केंद्र की नियमित कलाकार थीं।

संकठा मंदिर के पास नंदनसाहू लेन स्थित मकान में करीब दो वर्ष पूर्व हार्ट अटैक के बाद से बिस्तर पर पड़ी रहने वाली इस लोकगीत गायिका के खजाने में शिव-पार्वती, कृष्ण-राधा की होरी, कजरी, चैती, झूला, घाटो, चौमासा, बारहमासा, पचरा, सोहर, मंगल, विदाई, विवाह, पुरबी, गंगा गीत, देवी गीत, बधइया से लेकर जतसार तक के गीतों का संकलन है। जतसार का गायन महिलाएं जांता (घर की चक्की) में गेहूं या दाल पीसने के समय करती थीं। जांते का चलन समाप्त होने के साथ ही जतसार भी लुप्त हो गए। माया देवी ने सार्वजनिक मंचों पर कभी प्रस्तुतियां नहीं दीं। उनके ससुराल वालों ने मंच पर गाने की अनुमति नहीं दी। मंच पर न गा पाने का मलाल अब भी उनकी बातों में झलकता है।

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