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ऑटिज्म बच्चों पर कितना असर कारक है कोरोना संक्रमण

ऑटिज्म बच्चों दिनचर्या में बदलाव सहन नहीं कर सकते

रोहित वर्मा. कोरोना संक्रमण के चलते इन दिनों ऑटिज्म बच्चों और व्यक्तियों की दिनचर्या बुरी तरह प्रभावित हुई है। ये दिनचर्या में बदलाव सहन नहीं कर सकते। उनके स्कूल, कार्य स्थल इत्यादि बंद हो गए हैं, ऐसे में उन्हें घर में उचित गतिविधियों में लगाना आवश्यक हो गया है। कोरोना से बचने के लिए उन्हें साफ-सफाई और बचाव के उपाय सिखाना तथा उसे सुनिश्चित करना जरूरी हो गया है। इसके लिए अभिभावक तथा विशेष शिक्षक की मदद ली जा सकती है।

ऑटिज्म क्या है
ऑटिज्म एक विकासात्मक विकार है, जो संवाद और बातचीत करने की क्षमता को बाधित करता है। यह तंत्रिका तंत्र पर प्रभाव डालता है और व्यक्ति के समग्र संज्ञानात्मक, भावनात्मक, सामाजिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। ऑटिज्म बच्चा न तो अपनी बात किसी से कह पाता है और न ही दूसरों की बातों को समझ पाता है। ऐसे बच्चे झिझकने के साथ ही दूसरे से बात करने में पीछे होते हैं। इनमें बचपन में ही ऐसे लक्षण नजर आ जाते हैं, लेकिन आज भी काफी घरों में इस अवस्था के बारे में लोगों को पता नहीं है। अगर इन लक्षणों को समय रहते पहचान लिया जाए तो बच्चे का सही समय पर पुनर्वास किया जा सकता है।

ऑटिज्म पूरी दुनिया में फैला हुआ है। इसका मेल फीमेल का अनुपात चार एक का होता है। ऐसे बच्चे किसी भी बात को दोहराते हैं और पुर्नावृत्त व्यवहार करते हैं। विश्व ऑटिज्म डे को लेकर इस बार की थीम स्वतंत्र वयस्क जीवन के लिए व्यवस्था (मूविंग टू इंडीपेंडेंट एडल्ट हुड) रखा गया है। इस अवस्था को माइनेम इज खान मूवी से बेहतर समझा जा सकता है। नाम नहीं छापने की शर्त पर ऑटिज्म के शिकार एक बच्चे के माता-पिता ने बताया कि हम बच्चे को उतना ज्यादा समय नहीं दे पाते जितना कि उसकों चाहिए।

इसकी वजह घर और ऑफिस के काम के साथ ही दूसरे बच्चे को भी संभालना होता है। इनको हमेशा चिंता बनी रहती है कि हमारे न रहने के बाद बच्चे का क्या होगा। इनका कहना है कि सरकार को इन बच्चों के लिए कुछ ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे की माता-पिता के नही रहने के बाद भी बच्चों की देखभाल और उनका पुनर्वास किया जा सके, ताकि वे बेहतर जीवन जी सकें। ऐसे बच्चों की सही समय पर पहचान होने से परिजन उनका समय पर उपचार करा सकते हैं।

यूएन महासभा ने लिया फैसला
बता दें कि संयुक्तराष्ट्र महासभा द्वारा 18 दिसंबर 2007 को एक निर्णय लिया गया, जिसमें 2 अप्रेल को इस दिवस को मनाने की घोषणा की गई थी। इसके बाद हर वर्ष 2 अप्रेल को संपूर्ण विश्व में ‘विश्व स्वलीनता (ऑटिज््म) जागरुकता दिवसÓ मनाया जाता है। नीला रंग ऑटिज्म का प्रतीक माना गया है। इसके जरिए लोगों को समझाने की कोशिश की जा रही है कि अगर आपके घर में ऐसा कोई बच्चा है, तो उसे शर्म का कारण ना बनने दें, बल्कि प्रेम के साथ उसकी पूरी सहायता करें। क्योंकि इस रोग का इलाज प्यार ही है, जिसके जरिए आप अपने बच्चों को जिंदगी से लडऩे योग्य बना सकते हैं।

ऑटिज्म बच्चों की पहचान
सामान्य बच्चे मां का चेहरा देखकर उसके हाव-भाव को समझने की कोशिश करतें है, लेकिन ऑटिज़्म से ग्रसित बच्चे किसी से नजऱ मिलाने से कतराते हैं। सामान्य बच्चे आवाजें सुनने से खुश हो जाते हैं, परन्तु ऐसे बच्चे आवाज पर ध्यान नहीं देते। ये कुछ समय बाद अचानक बोलना बंद कर देते हैं तथा अजीब आवाजें निकालते हैं। ऐ चीजों को व्यवस्थित या जमा कर रखते हैं। इन बच्चों में व्यवहारिक समस्या भी देखने को मिलती है। ऐसे बच्चों का जन्म से लेकर दो साल तक बराबर ग्रोथ होता है, लेकिन दो साल बाद इनका ग्रोथ रुक जाता है। सामान्य बच्चे मां के दूर होने पर या अनजान लोगों से मिलने पर परेशान हो जाते हैं, परन्तु औटिस्टिक बच्चे किसी के भी आने या जाने से परेशान नहीं होते हैं। ऐसे बच्चे या तो बहुत चंचल या बहुत सुस्त रहते हैं। ये सामाजिक व्यवहार में भी पीछे होते हैं।

ऑटिज्म न्यूरोडेवलपमेंटल डिसॉर्डर
ऑटिज्म एक तरह का स्नायु विकासात्मक विकार है। इसे ‘ऑटिज्म स्पैक्ट्रम डिसॉर्डर’ कहा जाता है। अभी इस बीमारी के होने के स्पष्ट कारणों का पता नहीं चल पाया है। हालांकि अनुशोधों के अनुसार ऑटिज़्म होने के कई कारण हो सकते हैं। जैसे मानसिक गतिविधियों में असामान्यता। मस्तिष्क के रसायनों में असामान्यता। जन्म से पहले बच्चे का विकास सही रूप से न हो पाना आदि शामिल है।

ऑटिज्म बच्चों का इलाज
सामान्य बच्चों की तुलना में ऐसे बच्चों का इलाज थोड़ा कठिन होता है। ऐसे बच्चों के पुर्नवास के लिए आक्यूपेशनल थेरेपी, विहेवियर थेरेपी, स्पेशल एजुकेशन, स्पीच थेरेपी आदि से इनका शुरुआती इलाज होता है। यदि यह सभी चीजें लगातार बच्चे को दी जाएं तो उसमें से कुछ बच्चे सामान्य स्कूल में भी जा सकते हैं। इनमें कुछ विशेष गुण भी पाए जाते हैं। ऐसे बच्चों के माता-पिता काफी तनाव में रहते हैं, जिसके लिए उन्हें क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट की जरूरत होती है। ऐसे बच्चे और व्यक्ति के लिए मल्टीडिसप्लीनरी टीम की जरूरत होती है। कई बच्चे जो बोलते नहीं उन्हें ऑटिज्म चिन्हित कर दिया जाता है, जो गलत है। असल में बच्चे की नजर, सुनने की क्षमता, बुद्धि तथा अन्य क्षमताएं पूर्णतया जांच करने के बाद ही ऑटिज्म का विचार किया जाना चाहिए।

सरकार द्वारा दी जा रही सुविधाएं
आरपीडब्ल्यूडी एक्ट के तहत आने वाली 21 तरह की दिव्यांगता में ऑटिज्म को भी रखा गया है। ऐसे में इन्हें भी वह सारी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं, जो एक दिव्यांग को मिलती हैं। इस एक्ट के तहत ऑटिज्म के लिए रोजगार प्रशिक्षण तथा नौकरियों में आरक्षण का विशेष प्रावधान रखा गया है। ऐसे बच्चों का दिव्यांग सर्टिफिकेट बनाए जाने के साथ ही मासिक पेंशन, रेलवे पास और सरकारी बसों के पास की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है।

सीआरसी भोपाल के सहायक प्राध्यापक डॉ. गणेश अरुण जोशी बताते हैं कि कोरोना संक्रमण के चलते इन दिनों ऑटिज्म बच्चों और व्यक्तियों की दिनचर्या बुरी तरह प्रभावित हुई है। ये दिनचर्या में बदलाव सहन नहीं कर सकते। उनके स्कूल, कार्य स्थल इत्यादि बंद हो गए हैं, ऐसे में उन्हें घर में उचित गतिविधियों में लगाना आवश्यक हो गया है। कोरोना से बचने के लिए उन्हें साफ-सफाई और बचाव के उपाय सिखाना तथा उसे सुनिश्चित करना जरूरी हो गया है। इसके लिए अभिभावक तथा विशेष शिक्षक की मदद ली जा सकती है। विशेष शिक्षक से दूरभाष या वीडियो टेलीफोन पर परामर्श लिया जा सकता है। सीआरसी भोपाल के टोल फ्री नंबर 18002335956 और विशेष शिक्षक राम कुमार नागर से 9993020321 पर इसके लिए नि:शुल्क परामर्श लिए जा सके हैं।

सीआरसी भोपाल के मैदानिक मनोविज्ञान सहायक प्राध्यापक इंद्रभूषण कुमार बताते हैं कि आरपीडब्ल्यूडी एक्ट के तहत आने वाली 21 तरह की दिव्यांगता में ऑटिज्म को भी रखा गया है। ऐसे में इन्हें भी वह सारी सुविधाएं मिलेंगी, जो एक दिव्यांग को मिलती हैं। ऐसे बच्चों और व्यक्तियों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि इनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।

चिंगारी ट्रस्ट के स्पेशल एजुकेटर सूर्य प्रकाश सिंह का कहना है कि ऐसे बच्चों को सही समय पर पहचान लिया जाए और बच्चे को पूरा पुनर्वास दिया जाए तो ये भी सामान्य बच्चों से पीछे नहीं रहेंगे। साथ ही भविष्य में माता-पिता पर निर्भर न होकर आत्मनिर्भर बन सकेंगे। ऐसे बच्चों के लिए सरकार को पाठ्यक्रम में भी बदलाव करना चाहिए, ताकि बच्चा सामान्य स्कूल में सामान्य बच्चों के साथ लिखना-पढऩा सीख सके। हर सामान्य स्कूल में एक स्पेशल एजुकेटर होना चाहिए, ताकि ऐसे बच्चों को सामान्य बच्चों के जैसा बनाया जा सके।

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