छत्तीसगढ़ में भूपेश सरकार को एक साल हो गए. उसका लंबा हनीमून पीरियड बीत चुका है. एक साल के बाद सरकार की नीतियों, उसके क्रियान्वयन और उपलब्धियों के साथ कमियों की चर्चा होनी निहायत ही जरूरी है.
एक साल में सबसे बड़ी उपलब्धि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का चेहरा है. जो देशव्यापी स्वरूप केवल एक साल में हासिल कर चुका है. भूपेश बघेल ने एक किसान नेता के तौर पर अपनी देशव्यापी छवि गढ़ी है. एक ऐसे नेता की छवि जो फौरन फैसले लेता है. जो विशिष्ठता नहीं सामान्य बने रहने में यकीन रखता है. भूपेश बघेल सीएम बनने के एक साल बाद भी लोगों को उसी तरह से पहचानते हैं जैसे पहले पहचानते थे. उन्होंने अपने विकास के नज़रिए से राष्ट्रीय स्तर पर धाक जमाई है. वे अपने काम से लेकर विचारधारा के स्तर पर स्पष्ट राय रखते और मानते हैं. उन्होंने ये छवि जनसंपर्क विभाग की पॉलिश से नहीं अपने कामकाज से गढ़ी है.
प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार ललित सुरजन कहते हैं – ‘मुझे लगता है कि भूपेश बघेल की सरकार ओवरऑल ठीक है. एक साल में ये दिख रहा है कि किसानों की सरकार बन गई है. 15 साल एक सरकार को देखने की आदत बन गई थी.’ फैसले लेने के स्तर पर सरकार ने जो काम किया है उसकी मिसाल कम ही देखने को मिलती है. मुख्यमंत्री कहते हैं कि पांच साल के लिए जो प्रमुख 36 वादे किए थे, उसमें से 22 पहले साल में ही पूरे कर दिए. आंकड़ों के हिसाब से ये बढ़िया दिखता है, लेकिन इसकी पड़ताल भी बेहद ज़रूरी है.
शिक्षा और जल, जंगल ज़मीन की लड़ाई में अपना पूरा जीवन खपा देने वाले सामाजिक कार्यकर्ता गौतम बंधोपाध्याय को इस सरकार से बड़ी उम्मीदें हैं. वे कहते हैं- “15 साल बाद एक दूसरी विचारधारा की सरकार आई है. ज़ाहिर तौर पर व्यवस्था को समझने में वक्त लगता है, लेकिन अपनी विचारधारा के मुताबिक काम करने के लिए एक साल का वक्त काफी है. गौतम बंधोपाध्याय कहते हैं कि जिस तरीके से यूपीए की सरकार के दौरान जनअधिकार कानून बनाए गए उन्हें राज्य में लागू करने में सरकार को तेज़ी दिखानी चाहिए. शिक्षा अधिकार कानून, वनाधिकार कानून और पथ विक्रेता कानून को राज्य को मुस्तैदी से लागू करके लोकतांत्रिक और पारदर्शी व्यवस्था के प्रति अपनी आस्था को प्रकट करना चाहिए.
गौतम बंधोपाध्याय भूपेश सरकार के उठाए कुछ कदमों को लेकर नाइत्तेफाकी भी ज़ाहिर करते हैं. वे कहते हैं कि प्रदेश में जल पर नियामक आयोग के गठन से ज़्यादा ज़रtरी जल नीति बनाना था. वे वनाधिकार कानून और विशेष जनजातियों के हैबिटेट राइट पर एक साल के दौरान काम न होने से थोड़े निराश दिखते हैं, लेकिन अगले ही पल वे इस बात से संतोष जाहिर करते हैं कि भूपेश सरकार ने किसानों और आदिवासियों तक पहुंचने की कोशिश की. वे उम्मीद जताते हैं कि भूपेश बघेल अगले चार साल लोकतांत्रिक, भूखमुक्त, भयमुक्त और भरोसायुक्त सरकार देने में सफल रहेंगे.
भूपेश बघेल ने भरोसा कायम करने वाले कई कदम मुख्यमंत्री बनने के बाद उठाए. लेकिन भूपेश बघेल के कार्यकाल में जो सबसे बड़ी उपलब्धि दर्ज है कि उसने छत्तीसगढ़ की पूरी राजनीति को धान, किसान और छत्तीसगढ़िया के इर्द-गिर्द समेट दिया. भूपेश बघेल के कहते हैं कि उनके विकास के मॉडल के केंद्र में बिल्डिंग नहीं व्यक्ति है. इसका आशय साफ है कि विकास का लाभ व्यक्ति को मिले. केवल इमारतें और दीवारे बनाने से उस विकास का फायदा व्यक्ति को नहीं मिल पाता. हालांकि दूसरे साल में केंद्र और राज्य की लड़ाई में किसान और छोटे व्यापारी परेशान हैं.
अगर कामकाज की बात करें तो किसानों के कर्जा माफ करना और धान के बदले उन्हें 2500 रुपये का भुगतान करना सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर दर्ज है. जब देश में किसानों का समर्थन मूल्य बढ़ाने को लेकर बात हो रही है तो भूपेश बघेल की सरकार के इस फैसले को कृषि के बड़े जानकार भी देश में राहत के तौर पर देखते हैं. योगेंद्र यादव से लेकर देवेन्द्र शर्मा जैसे कृषि के जानकार इस फैसले के हक में हैं. योगेश यादव केंद्र को अपने उस फैसले पर पुनर्विचार करने पर कहते हैं जिसमें केंद्र ने कहा है कि अगर राज्य धान का समर्थन मूल्य 2500 देती है तो वो चावल की खरीदी नहीं करेगी. योगेश यादव कहते हैं कि किसानों की आय कम है और लाभकारी मूल्य देकर ही इस समस्या का समाधान किया जा सकता है. लेकिन राजनांदगांव के लेखक संजय अग्रवाल कहते हैं कि धान खरीदी के मसले पर इस साल छोटे व्यापारी काफी परेशान हैं. इसकी बड़ी वजह है कि बार-बार नियम बदला जा रहा है.
जबकि देवेंद्र शर्मा इससे आगे देख रहे हैं. देवेंद्र शर्मा सरकार के ड्रीम प्रोजेक्ट नरवा-गरवा, घुरवा-बारी को खेती और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को संकट से निकालने के तरीके के रूप में देख रहे हैं. वे कहते हैं कि पर्यावरण और खेती को बचाने का ये पारंपरिक तरीका ही इस समस्या का समाधान है. हालांकि वे इस बात पर भी आश्चर्य जताते हैं कि इस योजना के ज़रिए सरकार जैविक खेती के रास्ते पर किसानों को बढ़ाना चाहती है, लेकिन ऑर्गेनिक स्टेट बनने के लिए अब तक न तो कोई लक्ष्य तय किया गया है ना ही इसका रोडमैप तैयार किया गया है. वे आंध्रप्रदेश का उदाहरण देते हैं जो ज़ीरो बजट फॉर्मिंग शुरू कर चुका है.
हांलाकि राज्य के ही कृषि विशेषज्ञ संकेत ठाकुर इस बात को लेकर चिंतित हैं कि धान का समर्थन मूल्य बढ़ने के बाद प्रदेश में कई दूसरी फसलें उत्पादित करने वाले किसान धान की ओर लौट रहे हैं, जो फसल चक्र पर विपरीत असर डाल रही है. आदिवासी बहुल इलाकों में कोदो, कुटकी जैसी फसलों का उत्पादन घट रहा है. जो बेहद खतरनाक ट्रेंड है. धान खरीदी को सभी किसानों तक न पहुंचाना भी चिंता का विषय है. प्रदेश में 37 लाख किसान हैं, लेकिन करीब 20 लाख किसान ही धान सराकर को बेचते हैं. धान के ज़रिए इकॉनॉमी चमकाने की कोशिश तब तक अधूरी है जब तक ये किसान भी सरकार से लाभाविंत न हों.
हालांकि सरकार के अधिकारियों की दलील है कि जो लोग धान से कल्याण से चूक रहे हैं उनमें ज़्यादातर आदिवासी अंचल में रहने वाले हैं. जिनकी आय का बड़ा ज़रिया वनोपज संग्रहण होता है. सरकार ने तेंदूपत्ता के संग्रहण को बढ़ाकर ढाई हज़ार से चार हज़ार कर दिया है. इसके अलावा अन्य कई वनोपज को भी सरकार समर्थन मूल्य पर खऱीद रही है. उम्मीद की जा रही है कि ये आदिवासी अंचल में रहने लोगों की आय बढ़ाएगी.
धान से इतर उद्यानिकी और वानिकी को लेकर सरकार ने अलग विश्वविद्यालय बनाने की घोषणा तो कर दी. लेकिन आधुनिक किसानी के उन तौर तरीकों को बढ़ावा देने की कोई नई योजना लेकर सरकार नहीं आई जिनके ज़रिए किसानों की आमदनी गुणात्मक रुप से बढ़ाई जा सके.
भूपेश बघेल के एक साल की बड़ी उपलब्धि छत्तीसगढ़िया अस्मिता को स्थापित करना और उसके संरक्षक के तौर पर सरकार को पेश करना है. हालांकि भूपेश बघेल की चेतना यहां आकर बसे किसी बाहरी को डराने वाली नहीं है. छत्तीसगढ़ की भाशा और बोलियों का सम्मान, छत्तीसगढ़ी तीज-त्यौहार से लेकर व्यंजनों की पूछ-परख काफी बढ़ गई है.
छत्तीसगढ़ी साहित्यकार परदेशी राम वर्मा बताते हैं कि भूपेश बघेल की सरकार ने जो छत्तीसगढ़ी संस्कृति, लोककला और तीज त्यौहारों को लेकर एक साल में जो काम किया है उससे लोगों को पहली बार अपना राज्य होने का एहसास हो रहा है.लोगों में ये बात आई कि गांव की संस्कृति को महत्ता मिली. ये बताता है कि सरकार का मुखिया छत्तीगसढ़ को जानता है. बल्कि वो यहां के त्यौहार, उसकी विशेषताओं को जीना चाहता है. मुख्यमंत्री निवास से बैलगाड़ी में निकलना, गेड़ी चढ़ना और भंवरा नचाने का काम वही कर सकता है जो ये सब करता रहा हो. छत्तीसगढ़िया भूपेश बघेल के स्वाभाव में है. जो नज़र आता है.
सरगुजा के साहित्यकार महेश वर्मा कहते हैं कि सरकार लोक संस्कृतियों को लेकर बेहद सजग है. एक तरफ वो अंतराष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव कर रही है, दूसरी ओर नई औद्योगिक नीति लेकर आ रही है. ये बात समझने की है कि जब औद्योगिकीकरण होता है जो संस्कृति की उपेक्षा होती है. लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार के ये दोनों फैसलों का कांबिनेशन बेहद दुर्लभ है.
वे 3 डिसमिल से कम ज़मीन की रजिस्ट्री पर रोक हटाने को बड़ा फैसला बताते हैं. वे कहते हैं कि इस रोक के बाद करीब 1 लाख से ज़्यादा रजिस्ट्री हुई. यानि एक लाख लोग सरकार की एक नीति के चलते घर नहीं बना पा रहे थे. लेकिन भूपेश बघेल की सरकार ने इस संकट को पहचाना. ये कदम बेहद सकारात्मक है.
उपलब्धियों के साथ सरकार की कुछ खामिया भी एक साल में नज़र आई जिनकी चर्चा ज़रूरी है. इस एक साल में सरकार की दो बड़ी कमज़ोरी लोगों को नज़र आती है. पहली कमज़ोरी जितने बड़े काम सरकार ने किए, उन्हें वो चर्चा में नहीं ला पाई. दूसरी कमज़ोरी नौकरशाही को लेकर सरकार का रुख. बिजली बिल हाफ करना सरकार का बड़ा फैसला था. जिसे लेकर केजरीवाल दिल्ली में जनता के बीच अगले चुनाव में वोट मांगने गए थे लेकिन बिना किसी टर्म एंड कंडिशन के कांग्रेस ने राज्य में बिजली बिल हाफ कर दिया लेकिन इसकी चर्चा तक न कर पाई. यही हाल यूनिवर्सल पीडीएस का रहा. बढ़िया स्कीम है. लेकिन इसकी चर्चा गायब है.
सरकार ने चिकित्सा के क्षेत्र में कुछ काम ऐसे किए जिसे वो बता नहीं पाई. सरकार ने किसी बीमारी के इलाज के लिए सहायता राशि बढ़ाकर 20 लाख रुपये तक कर दी. सरकार ने बस्तर और सरगुजा के उन जगहों पर सैकड़ों डॉक्टरों की नियुक्ति कर दी, जिसके बारे में बीजेपी सरकार दस साल तक ये कहती रही कि वहां कोई डॉक्टर जाना नहीं चाहता है. सरकार ने बड़ा वादा यूनिवर्सल हेल्थकेयर को लेकर किया है. इस दिशा में सरकार कुछ आगे बढ़ी है लेकिन उसका स्वरूप क्या होगा? कब तक ये लागू हो जाएगा? इसे लेकर जनता में ही बहुत सारे सवाल हैं. इस बीच कुछ नियुक्तियों को लेकर लगातार स्वास्थ्य महकमा विवादों में रहा.
नौकरशाही इस सरकार की कमज़ोर कड़ी के रूप में दिखती है. नौकरशाही को लेकर सरकार की स्पष्ट सोच नज़र नहीं आती. कभी लगता है कि नौकरशाही के साथ चलना चाहती है कभी लगता है कि काबू में रखना चाहती है. नौकरशाही पर करीब से नज़र रखने वाले एक पत्रकार नाम न लिखने की शर्त पर बताते हैं कि अगर सरकार नौकरशाही को अपने हिसाब से चलाना चाहती है तो भ्रष्ट और नाकाबिल अफसरों के खिलाफ सख्ती दिखनी चाहिए. वरना ये ही लोग सरकार के मंसूबों पर पानी फेर देंगे
यही स्थिति संस्थानों की है. विचारधारा के स्तर पर जो देशव्यापी लड़ाई छिड़ी हुई है उसमें इन बौद्धिक संस्थानों का अहम योगदान है. लड़ाई में संस्थानों को अपने और देश की विचारधारा के अनुकूल बनाना शेष है.
पत्रिका के समाचार संपादक आवेश तिवारी कहते हैं कि एक साल बाद भी आश्चर्यजनक रूप से संस्थाओं का स्वरूप अपने अनुकूल बना पाने में सरकार पूरी तरह सफल नहीं हो पाई. नौकरशाही का रवैया में बड़ा बदलाव नहीं दिख रहा है. आवेश मानते हैं कि सरकार ने बड़े फैसले लिए लेकिन नौकरशाही ने इसका प्रचार नहीं होने दिया. इसका बड़ा उदाहरण इस साल धान खरीदी में नज़र आता है. धान खऱीदी के 15 दिन बाद किसानों के बीच नौकरशाही अपने काम से बदनाम कर रही है.
सरकार से उम्मीद है कि वो जल्द ही यूनिर्वसटी में इंटलेक्चुअल को लाए. सरकार चाहे तो छात्रसंघ चुनाव का ऐलान करके बड़ी संख्या में युवाओं को अपने पाले में ला सकती है. आवेश कहते हैं कि इस सरकार ने एक काम बढ़िया- ये किया है कि प्रदेश में बुद्धिजीवियों को लाकर एक वैचारिक माहौल बनाने की कोशिश की है. वे कहते हैं कि मंत्रियों को नौकरशाही पर लगाम लगानी चाहिए. बदलाव ज़मीन पर दिखे, ये सबसे ज़्यादा ज़रुरी है.
12 महीनों के दौरान विपक्ष ने जिस हथियार के साथ सत्ता पक्ष पर वार किया वो था शराब. विपक्ष ने शराब की बढ़ती कीमत और उसे प्रदेश में बंद कराने के कांग्रेसी वादे को लकेर बार-बार हमला बोला. कई सामाजिक कार्यकर्ता भी चाहते थे कि सरकार इसे पहले साल में बंद करे. लेकिन सराकर की दलील थी कि शराबबंदी उस तरह से न हो जैसी बिहार में है. जहां शराब की दुकानें बंद हो गईं लेकिन शराब की होम डिलेवरी शुरु हो गई. शराबबंदी को लेकर सरकार ने दो कमेटियां बनाई और साफ भी कर दिया कि शराबबंदी को लेकर वो हड़बड़ी में नहीं है.
जल, जंगल, ज़मीन और माइन्स को लेकर सरकार ने कुछ ऐतिहासिक फैसले लिए तो कुछ पर ऐसे सवाल उठे जिसका जवाब सरकार न दे पाई. यही हाल ब्यूरोक्रेसी का रहा. सरकार ने आते ही लोहांडीगुड़ा में किसानों की करीब 17 हज़ार वो ज़मीन वापिस दे दी जिसे टाटा के लिए अधिग्रहित किया गया था. सरकार ने नंदराज पर्वत में खनन के खिलाफ 25 हज़ार आदिवासियों के आंदोलन का सम्मान करते हुए उस पर रोक लगा दी. ये ऐसे फैसले हैं जिनकी मिसाल हिंदुस्तान के किसी दूसरी सरकार के कार्यकाल में नहीं मिलता.
नक्सल मोर्चे पर प्रभावितों और पीड़ितों से बात की पॉलिसी के साथ सरकार सामने आई लेकिन ये बात ज़मीन पर न उतर पाई. सरकार का दावा है कि नक्सल मोर्चे पर स्थिति बेहतर हुई है. आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं लेकिन बस्तर के जंगलों में मुठभेड़ आज भी जारी है. फर्जी एनकाउंटर के आरोप भी लगे हैं. रेत की खदानों को कांग्रेस ने ट्रांसपेरेंसी लाने के लिए रिवर्स बीडिंग के ज़रिए दिया. लेकिन पर्यावरण को लेकर उठे सवालों का जवाब ये प्रकिया नहीं दे पाई.
प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार आलोक पुतुल कहते हैं कि जल-जंगल-जमीन के मुद्दे पर सरकार को और गहराई से काम करने की ज़रूरत है. कृषि और संस्कृति को लेकर सरकार जितनी जागरुक दिखाई देती है, उतना ही आदिवासियों के मुद्दे पर बात करना ज़रूरी है. उनका मानना है कि नक्सलियों मसले पर सरकार ने पीड़ित और प्रभावितों से बात की पेशकश की गई थी. लेकिन इस पर कोई ब्लू प्रिंट भी बना नहीं दिखता. नक्सलवाद की चर्चा जब होती है तो उसके केंद्र में आदिवासी होते हैं. लेकिन आदिवासी अगर रायपुर में रैली लेकर आते हैं तो सरकार का कोई नुमाइंदा नहीं मिलता. दो महीने से आदिवासी सरगुजा में आंदोलन कर रहे हैं लेकिन उनसे बातचीत की कोई पेशकश नहीं की गई है. सरकार को इस दिशा में भी सोचने की ज़रुरत है.
भूपेश बघेल की सरकार ने अपने एक साल के कार्यकाल में वन्यजीवों और जंगल को लेकर कुछ सकारात्मक कदम उठाए. सरकार ने गरियाबंद में सालों से चल रहे अवैध कटाई के खेल का भंडाफोड़ किया. जबकि हाथियों के लिए रिजर्व लेमरु का क्षेत्रफल चार गुना बढ़ाकर करीब 2 हज़ार किलोमीटर कर दिया. वन्यजीव विशेषज्ञ अमलेंद्रु मिश्रा कहते हैं कि सरकार ने जो एक साल में किया है वो महत्वपूर्ण है. लेमरु बनाने और गुरुघासीदास को टाइगर रिजर्व बनाने से संरक्षित क्षेत्र काफी बड़ा हो जाएगा. इससे हाथी-मानव संघर्ष में कमी आएगी. अब जंगली जानवरों को पर्याप्त स्थान मिल पाएगा. हालांकि वे ये भी कहते हैं कि हाथी रिजर्व के आसपास माइनिंग को रोकना होगा.