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उद्धव ठाकरे: भाई से अलग हो पार्टी कब्जाई, ‘दोस्त’ से नाता तोड़ सत्ता!

 
नई दिल्ली 

28 नवबंर की तारीख को महाराष्ट्र की सियासत में नया इतिहास लिखा जाएगा. मुंबई के शिवाजी पार्क में जब उद्धव बाल ठाकरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे तो बाला साहेब ठाकरे का सालों पुराना सपना हकीकत में बदल जाएगा. इसी के साथ ही ठाकरे खानदान का पहला शख्स महाराष्ट्र की सत्ता पर काबिज होगा. हालांकि इस सपने के पूरे होने से पहले दोस्ती के कई उसूल टूटे. दो भाइयों के बीच दीवार खड़ी हुई. बाला साहेब के सामने एक ऐसा वक्त आया जब उन्हें अपने बेटे और भतीजे के बीच में से किसी एक चुनना था. उद्धव ठाकरे सामने आने वाली बाधाओं को रौंदते गए और अब महज कुछ वक्त के फासले के बाद वे महाराष्ट्र के सीएम होंगे.

राज-उद्धव की जोड़ी

जब महाराष्ट्र में बाला साहेब की तूती बोलती थी. उस दौरान उद्धव और राज उनके दो सिपहसालार थे. उद्धव और राज चचेरे भाई थे. उद्धव सियासत से खिंचे-खिंचे रहते थे, उनका फोटोग्राफी में मन लगता, लेकिन राज ठाकरे दबंग और मुखर थे. लोगों को उनमें चाचा बाल ठाकरे की छवि नजर आती थी. राज ठाकरे तेजी से शिवसैनिकों के बीच लोकप्रिय होते जा रहे थे.साल 2002 में बीएमसी के चुनावों में शिवसेना को कामयाबी मिली तो बाला साहेब ठाकरे ने उद्धव को 2003 में शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया. वहीं इस चुनाव में राज ठाकरे की सिफारिश वाले लोगों के टिकट काट दिये गए. 2004 में उद्धव को बाकायदा शिवसेना का अध्यक्ष घोषित किया गया. हालांकि उन्होंने शिवेसना का अध्यक्ष पद औपचारिक रूप से साल 2013 में संभाला था.
 

इधर राज ठाकरे के मन में खटास बढ़ती जा रही थी. आखिरकार 2006 में वो वक्त आ ही गया, जब राज ठाकरे मातोश्री से अलग हो गए. उन्होंने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना नाम से अलग पार्टी बना ली. हालांकि उद्धव कहते हैं कि उन्होंने कभी राज ठाकरे को मातोश्री छोड़कर जाने को नहीं कहा था. फरवरी 2012 में मुंबई BMC का चुनाव जीतने के बाद उद्धव ने कहा था, "मैंने कभी उसको जाओ…ऐसा नहीं कहा…वो खुद अपने आप चला गया है…इसलिए लौटने का सवाल मुझे नहीं उनसे पूछा जाना चाहिए."

दूर हुए दो दोस्त

आइए एक बार फिर से 2019 में आते हैं. 24 अक्टूबर को जब महाराष्ट्र चुनाव के नतीजे आए तो उद्धव ठाकरे को इसमें एक उम्मीद नजर आई. उद्धव को लगा कि महाराष्ट्र में ठाकरे राज के आगाज का इससे बेहतर मौका हो ही नहीं सकता है. उद्धव ठाकरे ने बाला साहेब को दिए वचन का हवाला बीजेपी को दिया और उनके सामने 50-50 फॉर्मूले की शर्त रख दी. बीजेपी के लिए ये सब अप्रत्याशित था. शिवसेना पिछले पांच साल में कई बार बागी तेवर अख्तियार कर चुकी थी, लेकिन हर बार कुछ मिन्नतों, कुछ समझौतों के बाद वापस आ जाती थी. लेकिन इस बार उद्धव थे कि टस से मस नहीं हो रहे थे. उनकी एक ही शर्त थी सीएम पद.

2014 में बीजेपी ने छीना बड़े भाई का रोल

दरअसल उद्धव ठाकरे को पिछले पांच साल से ये मलाल था कि 2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने उससे बाला साहेब ठाकरे की विरासत छीन ली थी. महाराष्ट्र की सियासत का जो रिमोट कंट्रोल मातोश्री में रहता था वो अब बीजेपी के कंट्रोल में चला गया था. 2014 के चुनाव में उद्धव के नेतृत्व में शिवसेना ने अपने दम पर चुनाव लड़ा था लेकिन उनकी पार्टी 63 सीटें ही जीत पाई. जबकि बीजेपी को 122 सीटें मिलीं और शिवसेना के हाथ से सत्ता की चाबी निकल गई.

टूट गई 30 साल पुरानी दोस्ती

लेकिन इस बार के नतीजे कुछ ऐसे थे कि बीजेपी के लिए शिवसेना का साथ अपरिहार्य था. बस उद्धव ने खुले आम अपनी महात्वाकांक्षा जाहिर कर दी. उद्धव की ये महात्वाकांक्षा बीजेपी-शिवसेना के बीच सियासी दुश्मनी में बदल गई. सवाल 30 साल की दोस्ती का था. विचारधारा से इतर जाने का था. लेकिन उद्धव जिद पर अड़े रहे. उन्होंने धारा के विपरीत चलना स्वीकार किया, लेकिन इस बार उन्हें सिंहासन हर हाल में चाहिए था. आखिर कुछ चटक और कुछ मरोड़ के साथ बीजेपी-शिवसेना की सालों पुरानी दोस्ती टूट गई. 28 नवंबर को उद्धव ठाकरे सीएम बनने जा रहे हैं.

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