बिछड़ा कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई
इक शख्स ने सारे शहर को वीरान कर गया
भोपाल. युवा काल में हिन्दी लेखक राबिन शा पुष्प का एक सार्थक प्रसंग आज तक मेरे जेहन में है। वे ईसाई थे, उनकी पत्नी माथे पर बिंदी लगाया करती थी। समुदाय द्वारा विरोध करने पर उन्होंने उन स्वरों को यूं कहकर मात दी थी कि धर्म तथा संस्कृति या विरासत दोनों अलग-अलग बातें हैं। धर्म एक जीवन संहिता है, जबकि विरासत हमारी वर्षों से चली आ रही नस्ल, खूबियां या कहें डीएनए है। यही था उनकी भारत की एकता का अद्भुत सोच।
इसी संदर्भ में कहें तो इरफान की पारिवारिक पृष्ठभूमि उस राजस्थानी धारा से थी जो अपनी, सभ्यता, अदब और मेहमाननवाजी के आरंभ से ही प्रतिबद्ध है। गंगा-जमुनी तहजीब का सबसे बड़ा केंद्र अजमेर भी वहीं है। बीएचईएल के पूर्व गु्रप महाप्रबंधक विजय जोशी ने बताया कि कुछ वर्ष पूर्व एक स्थानीय समाचार पत्र द्वारा भोपाल में जयपुर लिटरेचर की तर्ज पर फेस्टिवल का आयोजन किया गया था। इसमें समाचार पत्र के तत्कालीन संपादक आलोक मिश्रा के सौजन्य से मुझे भी सम्मिलित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
इसमें गांधीवादी विचारक डॉ. एसएन सुब्बारावजी के बाद इरफान की चर्चा होनी थी। सभागार में काफी भीड़ संभवतया सिने जगत के प्रति हमारी अनंत अभिरुचि के परिप्रेक्ष्य में थी। दिए गए समय के अनुसार आयोजन में इरफान का बगैर किसी तामझाम या आडंबर के सादगीपूर्ण प्रवेश हुआ। वे कार्यक्रम में मंचासीन हो गए और एंकर द्वारा पूछे जा रहे प्रश्नों के उत्तर का दौर शुरू हो गया।
फिर एक अद्भुत बात देखने को मिली जिसकी लोगों ने फिल्मी सितारों से कल्पना तक नहीं की होगी। इरफान ने अचानक सामने की पंक्ति में बैठे सुब्बारावजी को देखा और तत्काल मंच से उतरकर उनके पैर छू लिए। सारा सभागार उनकी इस सादगी और श्रद्धा भाव से प्रभावित हो तालियों से गूंज उठा। सुब्बारावजी भी हतप्रभ रह गए।
पुरखों से मिली अपनी विरासत का इससे अच्छा उदाहरण हम सबने पहली बार देखा था। वे अन्य फिल्मी कलाकारों की भांति मुंह में चांदी के चम्मच के साथ पैदा नहीं हुए थे और न ही बालीवुड की धरती पर अंग्रेजीदां रौबदाब के साथ पैराशूट से उतरे थे। एक साधारण परिवेश से कस्बाई मानसिकता वाला आदमी कैसे अपनी प्रतिभा, साफगोई और सच्चाई के बल पर फिल्मी फलक पर धु्रव तारे सा अपने दम पर उभर सकता है, इसे उन्होंने सिद्ध कर दिया।
मीडिया प्रभावित प्रचार तंत्र एवं ऊपरी चमक दमक से सर्वथा परे इरफान जैसे कलाकार ही एक आम आदमी के स्वरूप को पर्दे पर उतार सकने का साहस रखते हुए सार्थक संदेश दे सकते हैं। उनकी फिल्म हिन्दी मीडियम की तर्ज पर हमारे राजनेताओं और अफसरों ने यदि अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने का साहस दिखाया होता तो आज शिक्षा के गिरते स्तर की चर्चा इतिहास का विषय होती।
चाणक्य के निर्माता चन्द्रप्रकाश द्विवेदी ने साझा किया है कि सीरियल समाप्ति के दिन भी वे स्टूडियो में रुके रहे अंत तक धन्यवाद कहने के लिए और जब अवसर आया तो इतने जज्बाती हो गए कि ठीक से धन्यवाद भी न कह पाए। ऐसे जमीन से जुड़े स्टारडम से परे कलाकारों का सम्मान यदि आत्ममुग्ध बालीवुड कर पाता तो आज समाज हित में देश को दिशा देने का पुनीत कार्य कर सकता था।
वक्त की रेत पर कदमों के निशां मिलते हैं,
जो चले जाते हैं वो लोग कहां मिलते हैं।
विजय जोशी, लेखक पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक भेल