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‘अनजान द्वीप, खौफनाक रातें और मौत का साया’, 19 दिन समुद्री डाकुओं की गिरफ्त में रहे शख्स ने सुनाई आपबीती

 गोरखपुर 
यह आपबीती गोरखपुर के हरपुर क्षेत्र के रामसुंदर चौहान की है जो मुम्बई स्थित एंग्लो-ईस्टर्न शिप मैनेजमेंट कंपनी में फिटर पद पर तैनात हैं। नाइजीरिया से लौटते समय 3 दिसंबर को रामसुंदर समेत 18 भारतीयों को समुद्री डाकुओं ने बंधक बनाया लिया था।

अनजान द्वीप पर खौफनाक रातों में पल-पल मौत का घेरा था। समुद्री डाकुओं के कब्जे में अफ्रीकी द्वीप पर 19 रातें किस तरह गुजरीं, सोचकर रूह कांप जाती है। वतन पहुंचे तो लगा नया जीवन मिल गया।

हुआ यूं कि तीन दिसंबर को हम लोग क्रूड ऑयल लोड कर नाइजीरिया से शिप से वापस पाराद्वीप, उड़ीसा आ रहे थे। हमारे कैप्टन ने बंदरगाह के निदेशक से सुरक्षा मांगी। निदेशक ने कहा कि शिप को समुद्री दस्यु गिरोह के प्रभाव वाले क्षेत्र में पहुंचने से पहले सुरक्षा मुहैया करा दी जाएगी। इसके बाद शिप चल पड़ी और हम लोग अपनी-अपनी केबिन में आकर आराम करने लगे। तकरीबन दो घंटे बाद, वहां के समयानुसार देर शाम 7:30 बजे माइक पर कैप्टन की आवाज गूंजी। कैप्टन ने बताया कि शिप हाईजैक हो गई है। सभी लोग तत्काल डेक पर पहुंचें। साथ में चेतावनी भी कि जो जिस हालत में है उसी तरह पहुंचे। डेक पर 26 सदस्यीय दल पहुंच गया। वहां नौ समुद्री डाकू पहले से मौजूद थे। काले रंग के खूंखार चेहरे वाले डकैतों के हाथों में अत्याधुनिक हथियार थे।

बिना समय गंवाए डकैत एक-एक कर सभी को अपनी बोट पर रस्से के सहारे उतारने लगे। उतारते समय डाकुओं ने दो-तीन साथियों को थप्पड़ भी मारे। 11 लोगों के बाद मेरी बारी आई। मैं भी खौफ के चलते चुपचाप उनकी बोट पर उतर गया। कुल 19 सदस्यों को उन्होंने बोट में उतारा जिनमें 18 भारतीय थे। हम लोगों के साथ छत्तीसगढ़ के रायपुर का रहने वाला फिटर विजय तिवारी भी था। साथ में उसकी पत्नी भी थी। डकैतों ने बोट पर जगह नहीं होने से पांच लोगों को शिप पर छोड़ दिया।

बोट पूरी रात चलती रही। हल्का उजाला होने लगा तभी बोट तट पर रुकी। सामने घना जंगल। डकैत हमें जंगल के अंदर ले गए। करीब 2 घंटे पैदल चलने के बाद उस जगह पर पहुंचे, जहां पहले से कुछ हथियार बंद डकैत मौजूद थे। दोपहर में उन्होंने हमे खाने के लिए नूडल्स दिए। अब तक उन्होंने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया था लेकिन डर के चलते किसी से कुछ खाया नहीं गया। हम हर पल खूंखार डकैतों की निगरानी में थे। वहां उनके और हमारे अलावा दूर-दूर तक किसी और के होने का अहसास भी नहीं था। दिन तो किसी तरह गुजर गया। अंधेरा होते ही खौफनाक जंगल में अजीब-अजीब से ख्याल आने लगे। समुद्री डाकू रात में ही हमें फिर वहां से लेकर पैदल ही निकल गए। करीब चार घंटे बाद हम नए ठिकाने पर पहुंचे।

यही क्रम चलता रहा। डकैत हर दिन अपना ठिकाना बदलते रहे। वे आपस में बात करते तो हम लोगों को कुछ भी समझ में नहीं आता। हमसे तो अंग्रेजी में सिर्फ फूड और ड्रिंक ही पूछते थे। रात में तीन से चार सदस्य रोजाना सभी की जगंली जानवरों से सुरक्षा के लिए जागते थे। मैं भी आठ रातें बिल्कुल ही नहीं सोया।

7 दिसंबर को लगा कि अब मौत तय है। सबकी आंखों के सामने मौत नाचने लगी। हुआ ये कि हमें अपने कब्जे में लेने के लिए डकैतों के तीन गुट आपस में भिड़ गए। सुनसान जंगल गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंज उठा। आंखों के सामने ही हमें शिप से उतारकर लाने वाला एक डकैत ढेर हो गया। इसके बाद गोलियां चलनी बंद हो गईं। डकैतों ने आपस में बातें कीं और हमें अगली जगह के लिए लेकर निकल गए।

इसी तरह पांच दिन तक हम पल-पल मरते रहे। उन्होंने हमें कोई चोट नहीं पहुंचाई। साथ में विजय की पत्नी भी थी, उसके साथ भी डकैतों ने कोई ऐसी-वैसी हरकत नहीं की। फिर भी लगता था कि शायद अब नसीब में वतन वापसी नहीं है। इस दौरान जिंदा रहने के लिए कभी-कभी हमें नूडल्स कच्चा ही खाना पड़ा।

नाउम्मीदी के बीच 12 दिसंबर को उम्मीद की डोर मिली। डकैतों ने जब कंपनी के अधिकारियों से हमारी बात फोन पर कराई। अधिकारियों ने ढांढस बंधाया तो लगा कि शायद अब हम घर लौट सकेंगे। डकैतों ने कंपनी को फोन फिरौती के लिए किया था। कंपनी के अधिकारियों ने जब यह जानना चाहा कि हम कैसे हैं तब उन्होंने हमारी बात कराई।

इसके बाद पांच दिन तक फिर कोई बात नहीं हुई। वो हमें खाने को कभी चावल-बीन्स तो कभी नूडल देते। लेकिन बिना नहाए-धोए हम जंगल में हांके जा रहे थे। चिंता सिर्फ यही थी कि क्या हम घर पहुंच पाएंगे। आखिर 17 दिसंबर को रिहाई की उम्मीद मिली। जब हमें पता चला कि कंपनी ने डकैतों की शर्तें मान ली हैं। इन उम्मीदों ने सारी थकान दूर कर दी। लगा जैसे नया जीवन मिलने वाला हो। इन उम्मीदों ने बेकरारी भी बढ़ा दी। पल-पल का इंतजार भारी पड़ने लगा।

आखिरकार वह घड़ी भी आ गई जिसका हमें 19 दिनों से इंतजार था। डाकुओं ने हमें 23 दिसंबर को फिर बोट में बैठाया। करीब छह घंटे के सफर के बाद नाइजीरिया के समुद्र तट पर लाकर हमें छोड़ दिया। यहां नाइजीरिया की सेना पहले से ही हमारा इंतजार कर रही थी। इसके बाद सेना हमें लेकर एयरपोर्ट आई। वहां से हमें फ्लाइट से जर्मनी के रास्ते बेंगलुरु भेज दिया गया।

इन 19 दिनों में डाकुओं ने हमें कोई नुकसान तो नहीं पहुंचाया लेकिन खौफ इस कदर था कि मेरा वजन 80 किलोग्राम से घटकर 75 पर आ गया।

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