लेखिका: माधुरी खर्डेनवीस, भोपाल
संध्या भेद भरे स्वर में बोली, ये कमली बाई है ना वो चोर है
भोपाल. सामने वाले घर की संध्या गेट पर आवाज लगा रही थी। नीलू ने गैस बंद किया और बाहर आई। संध्या बोली- कब से आवाज लगा रही हूं क्या कर रही थीं। तुम्हारे डॉगी के कारण गेट खोलने में भी डर लगता है। नीलू मुस्कुराई- अरे रसोई में चिमनी के शोर में तुम्हारी आवाज ही नहीं सुनाई दी, आओ ना अंदर नहीं, मैं तो तुम्हे एक बात बताने आई हूं, संध्या भेद भरे स्वर में बोली, ये कमली बाई है ना वो चोर है। हैं, तुम्हे कैसे मालूम, नीलू आश्चर्य चकित हो गई, कमली कई वर्षों से उसके यहां काम पर थी परंतु आज तक उसने घर से एक पिन भी नहीं उठाई थी।
संध्या बोली- दोपहर जब मैं बाजार से घर आई तब घर पर मेरी गुडिय़ा की सहेलियां आई हुई थीं, मैंने जल्दी से बटुआ वहीं टेबल पर रखा और बच्चों के लिए नाश्ता लेने अंदर चली गई। ये कमली भी वहीं पोंछा लगा रही थी, थोड़ी देर बाद मैं ट्रे लेकर बाहर आई तो बटुआ गायब, पूरे 1000 रुपये थे उसमें, मैंने कमली से पूछा तो साफ मना कर गई, फिर तो मैंने उसकी पूरी तलाशी ली, कपड़ों के अंदर भी तलाशी ली पर कम्बखत ने जाने कहां छुपाया था बटुआ मिला ही नहीं, आखिर छोडऩा पड़ा उसे।
संध्या, गुडिय़ा और उसकी सहेलियों से नहीं पूछा तुमने, क्या उनके भी बस्ते देखे नीलू ने पूछा। संध्या बोली कैसी बातें कर रही हो नीलू, अच्छे घर की संभ्रांत लड़कियां हैं वो क्यों चोरी करेंगी। अब मैं तो कमली को काम से निकाल रही हूं, और इस महीने की पगार भी नहीं दूंगी, पैसे तो वसूल हो जाएंगे। कहते हुए संध्या जाने लगी।
अचानक नीलू ने कहा-रुको संध्या, तुम्हे एक चीज दिखाना है ये कहते हुए नीलू अंदर गई और एक छोटा सा बटुआ लेकर लौटी। क्या यही है तुम्हारा बटुआ, हां, यही तो है, तुम्हारे पास कैसे आया। नीलू ने बीच में ही बात काटते हुए कहा-मैं अभी शाम को बाजार से लौट रही थी, तब तुम्हारी गुडिय़ा और उसकी सहेलियों ने ये फेंका था। मैं समझी उनसे गिर गया सो उठाकर ले आई थी। संध्या का सर शर्म से झुक गया।