आदमी इसलिए दुखी रहता है, क्योंकि वो मकान, शहर, देश, वस्त्र, संबंध सब बदलता है, मगर स्वभाव नहीं बदल पाता
भोपाल. आदमी इसलिए दुखी रहता है, क्योंकि वो मकान, शहर, देश, वस्त्र, संबंध सब कुछ बदलता है, मगर अपना स्वभाव नहीं बदल पाता। और सच कहें तो स्वभाव से ही आदमी सुखी और दुखी बनता है।
वो स्वभाव ही तो था जब भरी सभा में दुर्योधन ने भगवान श्रीकृष्ण को दूत कहकर संबोधित करते हुए बंदी बनाने का आदेश दे डाला। शिशुपाल उन्हीं श्रीकृष्ण कि अग्रपूजा का विरोध करते हुए उनका उपहास करने लगा, मगर अपमान और उपहास की इन घडिय़ों में भी द्वारिकाधीश अपनी मंद-मंद मुस्कुराहट बिखेरते रहे।
सत्य कहा गया है कि व्यक्ति में सुंदरता की कमी हो तो अच्छे स्वभाव से पूरी की जा सकती है, मगर अच्छे स्वभाव की कमी हो तो सुंदरता से उसकी पूर्ति कभी नहीं की जा सकती है। चेहरे की सुंदरता तो प्रकृत्ति पर निर्भर होती है, मगर स्वभाव की सुंदरता आपकी प्रवृत्ति पर निर्भर करती है। चेहरे की सुंदरता जहां केवल आंखों में उतर पाती है, स्वभाव की सुंदरता वहीं दिल तक उतर जाती है।
अच्छा स्वभाव व्यक्ति को किसी के दिल में उतार देता है, तो बुरा स्वभाव व्यक्ति को किसी के दिल से भी उतार देता है। इसलिए अपने स्वभाव को मृदु बनाओ, ताकि आपका पूरा जीवन मधुरता से भर सके
जब हमारा मन पूर्णतया स्थिर एवं एकाग्र होता है, तभी पूरी तरह ऊर्जावान होकर उसकी पूरी शक्ति शुभ और श्रेष्ठ कार्य करने में व्यय हो पाती है। मन की स्थिरता और समस्त इंद्रियों का निग्रह ही शास्त्रों में आत्म संयम कहा गया है।
आत्म संयम को और सरल अर्थों में समझें तो वो ये कि हमारी समस्त इंद्रियों द्वारा श्रेष्ठ पथ का अनुगमन ही आत्म संयम है। दृश्येंद्रि और श्रवणेंद्रि यें दोनों मानव शरीर की दो प्रमुख और प्रधान इंद्रियां हैं। जिन्होंने इन दोनों को वश में कर लिया बाकी इंद्रियां अपने-आप वश में हो जाती हैं।
दृश्येंद्रि का अर्थ है आंख और श्रवणेंद्रि का अर्थ है कान। आंखों से हम जगत की भली बुरी घटनाओं को देखते हैं तो कानों से हम भली बुरी बातों को सुनते हैं। दृश्य और श्रवण का मानव जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।
हमारे व्यक्तित्व निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका अगर किसी की होती है तो वो इन्हीं दो इंद्रियों की होती है। हमने क्या देखा..? और हमने क्या सुना..? इन दो बातों पर हमारा व्यक्तित्व केंद्रित होता है।
आंखों से श्रेष्ठ को देखना, कानों से श्रेष्ठ को सुनना, हाथों से श्रेष्ठ को करना, वाणी से श्रेष्ठ को गाना, बुद्धि से श्रेष्ठ का चिंतन करना और मन से श्रेष्ठ को चाहना, इसी को हमारे शास्त्रों में आत्म संयम कहा गया है। सरल अर्थों में हमारी समस्त इंद्रियों द्वारा केवल और केवल श्रेष्ठ का अवलंबन ही तो आत्म संयम है।