रायपुर
छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति, लोक गीत, नृत्य और संपूर्ण कलाओं से राष्ट्रीय बाल विज्ञान प्रदर्शनी में देशभर से आए बाल वैज्ञानिकों और शिक्षकों को परिचित कराया गया। इसके लिए लर्निंग कैम्प के माध्यम से विभिन्न परम्परागत नृत्य, विभिन्न कलाओं, पारम्परिक वस्तुओं का प्रदर्शन राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद कार्यालय के परिसर में 15 से 19 अक्टूबर तक किया गया। इसमें सरगुजा के सैला, कर्मा, बायर, रायगढ़ के जशपुरिया करमा, सरहुल, बस्तर के गौर, रेला, पाटा, लेजा, गेड़ी, दुर्ग का राउत नाचा, खड़ी साज, राजनांदगांव का पोश कोलांग, बिलासपुर और कोरबा का गौरा-गौरी, बार नृत्य, रायपुर का डंडा, सुआ और पंथी नृत्य की शानदार प्रस्तृति लोक कलाकारों द्वारा दी गई।
छत्तीसगढ़ राज्य में आयोजित यह प्रदर्शनी अब तक आयोजित अन्य राज्यों में आयोजित प्रदर्शनी से अलग थी। प्रदर्शनी में विज्ञान के साथ कला की खुशबू भी बिखर रही थी। विभिन्न कलाओं के लर्निंग कैम्प से जुड़ने से विज्ञान के लिए भी कुछ अच्छा हो सकता है, इसका प्रयास राज्य द्वारा किया गया। लर्निंग कैम्प के माध्यम से विश्व प्रसिद्ध कलाकारों में सरगुजा की भित्ती कला की श्रीमती सुन्दरी बाई और गोदना कला की श्रीमती रामकेली बाई सहित लौह शिल्प और बस्तर के तुमा आर्ट के कलाकारों ने देशभर से आए बाल कलाकारों, शिक्षकों और यहां प्रदर्शनी देखने के लिए हर आने-जाने वाले का ध्यान आकर्षित किया।
करमा नृत्य
करमा नृत्य, करमा त्यौहार के अवसर पर किया जाने वाला नृत्य है। जिसमें अंचल के महिला व पुरूष मांदर की थाप पर करमा गीत गाते हुए एक साथ कदम का संचालन कर थिरकते है। यह त्यौहार भाद्रपद शुक्लपक्ष एकादषी से प्रारंभ होकर दषहरा तक आयोजित किया जाता है।
शैला नृत्य
सरगुजा अंचल का यह प्रसिद्ध नृत्य है, जिसे पुरूषों द्वारा किया जाता है। ये हाथ में डंडा लिए मांदर की थाप पर एक दूसरे से डंडा मिलाते हुए कदमों का संचालन करते है। शैला नृत्य दीवाली के बाद फसल कटने की खुषी में की जाती है। शैला दल गांव-गांव जाकर हर घर में अपनी प्रस्तुति देते है। घर परिवार की समृद्धि की कामना करते है बदले में परिवार के लोग नेंग स्वरूप चावल और पैसा देते है।
बायर नृत्य
बायर नृत्य – बैषाख माह के कृष्ण पक्ष तिथि को षिव पार्वती के विवाह के आयोजन के अवसर पर किया जाता है। स्थानीय बोली में गाये जाने वाले विवाह गीतों में षिव पार्वती की आराधना की जाती है। इस नृत्य में स्त्री तथा पुरूष दोनों ही शामिल होते हैं।
पहाड़ी गौरा लोक नृत्य
कोरबा जिले के कवँरान पाट क्षेत्र का सरगुजा में गौरा उत्सव प्रत्येक वर्ष इस माह में मनाया जाता है। इस नृत्य में वानांचल क्षेत्र में संपन्न होने वाले विवाह शैली व परंपरा को शंकर पार्वती के विवाह के रूप में प्रगट कर गांव जनों के मंगल कामना व गांव के खुषहाली के लिए मनाया जाता है। प्रायः देखा गया है कि इस लोक नृत्य में ढोल, मांदर, झांझ और मोहरी के स्वर लहरी पर अनायास ही पैर थिरकने लगता है और नाच-नाच कर गाकर इस नृत्य को किया जाता है। इस लोकनृत्य के माध्यम से अगली पीढ़ी अपने संस्कार को सीख जाती है और वही समाज में परिलक्षित होता है। इस लोकनृत्य में समुचा गांव शामिल होता है। पहले गांव के देवालय से मिट्टी बैगा घर के चौरा से मूर्तिकार के घर गाते बजाते जाते है और तीसरे दिन पुनः शंकर, पार्वती, डंढईचारानी, भैरव नाथ एवं मंदिर की पूजा कर पार्वती को दूसरे घर रखा जाता है और शेष लोगों की मूर्तियों को बैगा के घर पहुंचाया जाता है। शंकर भगवान को तेल, हल्दी चढ़ाना, न्यौता रूप में फिर बारात, टिकावन और फिर शंकर भगवान, पार्वती का पुनः विवाह शंकर जी के घर इसके पष्चात् खुषी मनाते हुए झूम-झूम कर समूह में रात भर नाचते हैं और फिर सूर्य के प्रथम किरण के साथ विसर्जन हेतु नाचते गाते घाट-घटौंदा पर जाते है।
गौर नृत्य
गौर नृत्य – गौर नृत्य दण्डामी माडिया जनजाति द्वारा किया जाता है। 34 सदस्यों के दल ने 18 अक्टूबर को एस.सी.ई.आर.टी. में प्रस्तुत किया। इस नृत्य में गौर के सिंगों से मुकुट तैयार किया जाता है। मुकुट में सामने कौडि़यों की लडि़या लकटती रहती है। जो चहरे को ढक देती है भृंगराज पक्षी के पंखो को मुकुट में लगाकर सजाया जाता है, पुरूष गले में बड़ा ढोलक बजाते हुए मदमस्त होकर गौर की तरह सिर को हिलाते हुए नाचते है। महिलायें लोहे की छड़ी जिसे तिरड्डी कहते है। उसे जमीन पर पटकते हुए पुरूषों के साथ कदम से कदम मिलाकर नृत्य करती है।