सम्यक सम्बोधि : तपस्सु और भल्लिक थे भगवान बुद्ध के प्रथम दो उपासक
भोपाल. उन दिनों भारत के उत्कल (उत्कल-उड़ीसा) जनपद से ब्रह्मदेश की इरावती नदी के मुहाने पर गए हुए लोगों ने वहां जिस नगर को बसाया उसे अपने देश की याद में ‘उत्कल’ नाम दिया। उत्कल नगर में अनेक जनपदों में भारतीय व्यापारी बस गए थे। तपस्सु और भल्लिक दो भाई भी व्यापार के लिए वहां जा बसे थे। पर वे बाल्हिक के थे, जिसे आज बलख कहते हैं। यह अफगानिस्तान में मजारे शरीफ से अठारह किलोमीटर पश्चिम में है।
भगवान बुद्ध को जब सम्यक संबोधि प्राप्त हुई तब उत्कलापति वहां का राजा था। तपस्सु और भल्लिक दोनों भाई वहां व्यवसाय करते थे। ये दोनों व्यापार के लिए वहां से भारत बार-बार आते-जाते थे। ताम्रलिप्ति तक समुद्री नावों में लाए गए बरमी सामान को भारत में बेचने के लिए जब वे पांच सौ बैलगाडिय़ों पर लाद कर उरुवेला वन में से गुजर रहे थे, तब वहां उन्होंने सम्यक सम्बुद्ध के दर्शन किये थे।
भगवान उस समय सम्यक सम्बोधि के मुक्ति-सुख में सात सप्ताह बिता चुके थे और बोधिवृक्ष के पास राजायतन वृक्ष के तले आसीन थे। इन दोनों भाइयों ने उन्हें ब्रह्मदेश के चावल और मधु के बने मोदक (लड्डू) भोजन के लिए प्रदान किए। यह सम्यक सम्बोधि प्राप्त करने के बाद भगवान का प्रथम भोजन था।
आज तक पूजते हैं लोग
इन्हें भगवान से उनके सिर के आठ गुच्छे बाल प्राप्त हुए। उन्हें लेकर वे तत्काल उत्कला लौटे और वहां के राजा उत्कलापति ने बोद्धों, सूले और मुख्यत: श्वेडगोन स्तूपों का निर्माण करवा कर उनके गर्भ में इन्हें ससम्मान संस्थापित किया, जिन्हें वहां के लोग आज तक पूजते हैं।
भगवान बुद्ध ने प्रथम धर्मदेशना वाराणसी मृगदाय में दी थी
तपस्सु और भल्लिक ने उस समय भगवान से पंचशील लिए परंतु कोई धर्मदेशना नहीं सुनी। भगवान ने अपनी प्रथम धर्मदेशना वाराणसी मृगदाय में दी थी। भगवान के केशधातु उत्कला में स्थापित करवा कर वे दोनों पुन: मगध देश आए और राजगीर में उन्होंने भगवान से धर्मदेशना प्राप्त की। फलस्वरूप भल्लिक प्रव्रजित हो अनास्रव अरहंत हो गए।
तपस्सु स्रोतापन्न हुआ और गृहस्थ रह कर व्यापार-धंधे में लगा रहा। अपना उद्धार कर वे अनेकों की धर्मसेवा में लग गऐ। इन दोनों के माध्यम से ही बुद्ध की शिक्षा ब्रह्मदेश में पहले-पहल पहुंची। भगवान ने इन दोनों भाइयों को ‘अग्र’ की उपाधि दी।
बची हुई केशधातु रख ली अपने पास
एक मान्यता यह भी है कि इन दोनों ने म्यंमा (ब्रह्मदेश) को भगवान की पावन केशधातु भेंट देकर कुछ शेष बची अपने पास रख ली, जिसे वे अपनी जन्मभूमि में स्तूप बनाकर संनिधानित करना चाहते थे। वे अपनी कर्मभूमि और जन्मभूमि दोनों को भगवान की अनमोल भेंट से पावन करना चाहते थे। अत: वे दोनों अपने पुरखों की भूमि बलख (बाल्हिक, भल्लिक) की ओर चल दिए, जो उत्तरापथ की ओर थी।
दोनों भाइयों को मिला लाभ
इन दोनों भाइयों ने बलख के समीप एक छोटे नगर असितंजन में जन्म लिया था। वहां जा कर नगर के प्रमुख द्वार के समीप एक भव्य स्तूप बनवाया और उसमें अपने साथ लायी भगवान की पावन केशधातु को ससम्मान संनिधानित किया।
धन्य हुए तपस्सु और भल्लिक,जो कि उन दिनों के विशाल भारत के पूर्वी और पश्चिमी देशों में भगवान बुद्ध की केशधातु के सर्वप्रथम स्तूपों के निर्माण करने में सहायक बने। तथागत बुद्ध के प्रथम उपासक बनने का तपस्सु और भल्लिक दोनों भाइयों को लाभ प्राप्त हुआ। उन्होंने दो शरण ली। बुद्ध की शरण और धम्म की शरण क्योंकि, उस समय संघ की स्थापना नहीं हुई थी।