नई दिल्ली/पटना
सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद से आरक्षण शब्द एक बार फिर से सुर्खियों में है। पूरी उम्मीद है कि यह शब्द अगले कुछ महीने चर्चा में बना रहेगा। दरअसल, प्रमोशन में आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड हाईकोर्ट के एक फैसले को पलट दिया है, जिसके बाद से राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे को फिर से हवा देना शुरू कर दिया है। इसे संयोग कहें कि ठीक पांच साल पहले 2015 में जब बिहार विधानसभा चुनाव हुए थे तब आरक्षण शब्द पर ही पूरी लड़ाई लड़ी गई थी। अब इस साल भी बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं और एक बार फिर से आरक्षण शब्द सुर्खियों में है।
भागवत के बयान पर PM मोदी देते रहे गए सफाई
आरक्षण शब्द बिहार जैसे राज्य के लिए कितना संवेदनशील है, इसे हाल के वर्षों में 2015 विधानसभा चुनाव से समझा जा सकता है। इस चुनाव से ठीक पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रमुख मोहन भागवत ने कह दिया था कि आरक्षण नीति की समीक्षा होनी चाहिए। भागवत के इसी बयान को राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने लपक लिया और पूरे चुनाव प्रचार के दौरान वह यही कहते रहे कि बीजेपी आरक्षण खत्म करना चाहती है। लालू ने पूरे चुनाव का माहौल 1990 के दशक की मंडल बनाम कमंडल वाली राजनीति की तरह मोड़ दिया था।इसके बाद पूरे चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह, तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह सरीखे नेता जनता को भरोसा दिलाते रहे कि लालू मोहन भागवत के बयान के गलत मायने निकाल रहे हैं, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। आरक्षण पर पीएम मोदी की सफाई पर लालू यादव के बयान भारी पड़े।
चुनाव परिणाम आने पर बीजेपी नेताओं को स्वीकार करना पड़ा कि आरक्षण पर मोहन भागवत के बयान से उन्हें काफी नुकसान हुआ। इस चुनाव में लालू यादव की पार्टी आरजेडी ने 80 और तब उनके साथ चुनाव में उतरे नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ने 71 सीटें जीती थीं। वहीं पीएम मोदी की करीब 50 से ज्यादा रैलियों के बाद भी बीजेपी 53 सीटें ही जीत पाई। हालांकि करीब एक साल बाद नीतीश कुमार आरजेडी से नाता तोड़कर बीजेपी के साथ चले गए और उसी के साथ सरकार चला रहे हैं।अब एक बार फिर से बिहार में विधानसभा चुनाव है और आरक्षण शब्द सुर्खियों में है। ऐसे में आगे क्या-क्या राजनीतिक रंग देखने को मिलेंगे इसका अनुमान तो लगाया ही जा सकता है।
एलजेपी ने उछाला और कांग्रेस ने लपका
इस बार एनडीए के घटक दल लोक जन शक्ति पार्टी (एलजेपी) ने प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर पहली प्रतिक्रिया दी है। एलजेपी के सांसद चिराग पासवान ने ट्वीट कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर आपत्ति जता दी है। राजनीति के जानकार मानते हैं कि चिराग ने बेहद सूझबूझ के साथ इस मुद्दे को उछाला है। चिराग दलित समाज से आते हैं और उन्हें अपने पिता राम विलास पासवान की राजनीतिक विरासत संभालनी है। ऐसे में जनता के बीच अपनी पकड़ स्थापित करने के लिए उनके पास आरक्षण से ज्यादा अच्छा मुद्दा और क्या हो सकता है।एलजेपी ने जैसे ही प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे को उछाला अनुभवी कांग्रेस ने उसे लपक लिया है। कांग्रेस के दो बड़े वरिष्ठ नेता मैदान में उतरे और प्रेस कांफ्रेंस कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर आपत्ति जताई। मल्लिकार्जुन खड़गे और मुकुल वासनिक सरीखे नेताओं के बयान पर गौर करें तो पता चलता है कि कांग्रेस इस मुद्दे को हवा देने का मन बना चुकी है। दोनों नेताओं ने कहा है कि कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद में उठाएगी। कांग्रेस के दोनों वरिष्ठ नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर आपत्ति जताने के साथ ही ये भी आरोप लगाया है कि आरएसएस आरक्षण विरोधी है और वह इसे खत्म करने के लिए काम कर रही है।इस बार लालू यादव जेल में सजा काट रहे हैं। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि लालू की विरासत संभाल रहे उनके बेटे तेजस्वी और तेजप्रताप यादव प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे को कैसे उठाते हैं। साथ ही यह भी गौर करने वाली बात होगी की बीजेपी की सहयोगी जेडीयू इस मुद्दे पर क्या स्टैंड लेती है।
क्या है सुप्रीम कोर्ट का फैसला
प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर राजनीतिक बयानबाजी शुरू हो चुकी है। ऐसे में यह भी जानना जरूरी है कि आखिर सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर क्या कहा है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि राज्य सरकार प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। किसी का मौलिक अधिकार नहीं है कि वह प्रमोशन में आरक्षण का दावा करे। कोर्ट इसके लिए निर्देश जारी नहीं कर सकता कि राज्य सरकार आरक्षण दे।सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी जजमेंट (मंडल जजमेंट) का हवाला देकर कहा कि अनुच्छेद-16 (4) और अनुच्छेद-16 (4-ए) के तहत प्रावधान है कि राज्य सरकार डेटा एकत्र करेगी और पता लगाएगी कि एससी/एसटी कैटिगरी के लोगों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है या नहीं ताकि प्रमोशन में आरक्षण दिया जा सके। लेकिन ये डेटा राज्य सरकार द्वारा दिए गए रिजर्वेशन को जस्टिफाई करने के लिए होता है कि पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। लेकिन ये तब जरूरी नहीं है जब राज्य सरकार रिजर्वेशन नहीं दे रही है। राज्य सरकार इसके लिए बाध्य नहीं है। और ऐसे में राज्य सरकार इसके लिए बाध्य नहीं है कि वह पता करे कि पर्याप्त प्रतिनिधित्व है या नहीं। ऐसे में उत्तराखंड हाई कोर्ट का आदेश खारिज किया जाता है और आदेश कानून के खिलाफ है।