नई दिल्ली
60 साल की कुसुम को इलाके की झुग्गियों के आसपास रहने वाले लोग स्लम्स मदर के नाम से जानते हैं। वह नरेला बंगाली बस्ती और झुग्गियों में रहने वाले सैकड़ों बच्चों को शिक्षा का शुरुआती पाठ पढ़ाती हैं। इन बच्चों का पहले केवल कूड़ा चुनते हुए समय बीतता था, लेकिन अब वे स्कूल जाने लगे हैं। इनके लिए कुसुम एक टीचर या मां से कम नहीं हैं। वह करीब 15 साल से ऐसे बच्चों को पढ़ा रही हैं।
नरेला, रामलीला ग्राउंड के पास एक झोपड़ी बनाकर बच्चों को पढ़ा रहीं कुसुम पेशे से टीचर नहीं हैं। शुरुआती दिनों में वह बिल्कुल साधारण महिलाओं की तरह एक गृहिणी थीं। उन्होंने 10वीं तक पढ़ाई की है। वह परिवार के साथ उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले से नरेला रहने के लिए आईं। पति ठाकुर राम सिंह चौहान ने शुरुआती दिनों में छोटा-मोटा व्यापार शुरू किया। कुसुम बताती हैं, 'एक दिन उनके गोदाम पर काम कर रहे कुछ मजदूरों ने कहा कि आपके बच्चे तो सरकारी स्कूल में भी पढ़ लेते हैं, लेकिन हमारे बच्चे सरकारी स्कूल तक भी नहीं पहुंच पाते।' इस बात ने कुसुम को सोचने पर मजबूर कर दिया।
गोदाम पर काम कर रहे लोग गरीब मजदूर थे। उनकी कमाई बस इतनी थी कि रोज कुछ रुपया मिल जाए, तो घर की दाल-रोटी चल सके। बच्चों को पढ़ाना तो दूर की बात थी। इसके बाद कुसुम ने तय किया कि उनके बच्चों को भी इस योग्य बनाया जाए, जिससे उनका दाखिला स्कूल में हो सके। इस काम में उनका सहयोग दिया उनकी तीन बेटियों-सपना, आरती और डॉली राजपूत ने।
कुसुम ने बताया कि शुरुआत में झुग्गी-झोपड़ी में रह रहे बच्चों को घर जाकर पढ़ाना शुरू किया। उन दिनों सिर्फ 7-8 बच्चे ही होते थे। 15 साल में 200 से अधिक बच्चे पढ़ने के लिए आते हैं। हायर एजुकेशन की क्लासेज उनकी बेटी डॉली राजपूत लेती हैं। यहां पढ़ने वाले बच्चों का धीरे-धीरे सरकारी स्कूलों में ऐडमिशन करवाया जाने लगा। इस दौरान, उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। साल 2007 में राम सिंह चौहान का व्यापार बंद हो गया। आर्थिक संकट से गुजर रहा पूरा परिवार अपने आपको असहाय महसूस करने लगा। उस वक्त सोशल मीडिया के माध्यम से उनकी पहचान मिली। आसपास के कई सामाजिक संगठनों ने बच्चों के लिए पेंसिल-रबड़ की व्यवस्था की। साल 2017 में उन्हें एक एनजीओ की मदद मिली। डॉली ने बताया कि उनकी मम्मी को कई संस्थाओं ने बच्चों को पढ़ाने के लिए सम्मानित किया है।