नई दिल्ली
बस अयोध्या मामले का भी चैप्टर बंद ही होने वाला है. 40 दिन की सुनवाई के बाद उम्मीद है कि देश के इस सबसे पुराने मुकदमे का फैसला सुरक्षित यानी जजमेंट रिजर्व हो जाए. फिर मुमकिन है कि लगभग एक महीने बाद फैसला आए.
अब आप सोच रहे होंगे कि एक महीना क्यों. अब कोर्ट ने दलील सुन तो ली ही, बस जजमेंट सुना क्यों नहीं देते. हमसे भी लोग पूछते हैं कि दिवाली से पहले क्यों नहीं सुना देते माइलॉर्ड फैसला…आखिर इतना वक्त क्यों.
फैसला आने में क्यों लगता है वक्त
तो हम आपको बताते हैं कि लंबी-लंबी बहस, दलीलों और सबूत गवाहों के चर्चे, किताबों के हवाले इतना आसान नहीं है सबको याद रखना. चलिए अब जज साहबान ने उनकी नोटिंग साथ की साथ ही कर ली होगी. लेकिन जो दस्तावेज और दलीलें दी गईं उनकी तस्दीक भी तो करनी जरूरी है. साथ ही अदालत को अपने फैसले को कानूनी तौर पर जस्टिफाई भी करना होता है.
इसके अलावा जिस मामले की सुनवाई कर फैसला देना है उससे मिलते जुलते दुनिया भर की अदालतों की नजीर माने जाने वाले फैसलों के संबंधित अंश का हवाला देने से जजमेंट ज्यादा मुंसिफ लगता है यानी न्यायसंगत. इससे संबंधित कानून की किताबों को एक बार फिर उलटना और उनका अनुशीलन करना पड़ता है.
रिसर्च टीम सबूतों की करती है जांच
ये अलग बात है कि हरेक जज के पास लॉ क्लर्क के रूप में रिसर्च करने वालों की पूरी जमात होती है. यानी हरेक कोर्ट का रिसर्च स्टाफ होता है. हालांकि ये लोग भी कई बार मुकदमों के फैसलों के लिए रिसर्च का काम करते हैं. लेकिन उनको ये नहीं पता होता कि आखिर उनकी ये रिसर्च कहां, कैसे इस्तेमाल होनी है. इन सभी चीजों के अलावा जज खुद भी अपनी दिलचस्पी और विवेक के मुताबिक अपने फैसले को कई तरह के तर्कों से सुसज्जित करते हैं.
30 हजार पेज के मूल दस्तावेज की पड़ताल
कई बार जजमेंट में किसी ग्रंथ की उक्तियां, कविताएं, शेर-ओ-शायरी या फिर श्लोक या ऋचाएं भी होती हैं. अब ये अयोध्या मामले का सवाल ही लें तो इसमें 30 हजार पेज के तो मूल दस्तावेज हैं और साथ ही उनका अनुवाद. कोर्ट में सात बड़े-बड़े संदूक तो मूल दस्तावेजों से भरे हैं. सब पर जजों के नाम भी लिखे हैं.
इनके अलावा सबकी दलीलें, सबके विभिन्न ग्रंथों के हवाले और साथ ही कई तरह की बातें, तर्क और सबूत या फिर रिपोर्ट्स. इन सबकी तस्दीक करने और उनका सार निकालने में वक्त, मेहनत और काबिलियत तो लगती ही है न?
अब बताइए एक महीना ज्यादा है क्या? यही वजह है कि अदालत मुकदमे की सुनवाई पूरी करके फैसला सुरक्षित रख लेती हैं. इसके बाद अदालत सभी पक्षकारों को ये भी कहती हैं कि अब जिसे जो कहना हो लिखित बयान यानी रिटन सबमिशन के जरिए बता सकते हैं. यानी फैसला सुरक्षित होने के बाद से फैसला लिखे जाने तक `मुकदमा' इन राहों से गुजरता है.